कोई भी बड़ा और भीषण युद्ध जुबानी जंग की कोख में ही पनपता है! फिर इसका लालन-पोषण हथियारों को विकसित करती बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां करती हैं और इसका अंतिम-संस्कार दुनिया के तमाम बड़े नेताओं की बेवकूफी से होता है! अंत में सिर्फ और सिर्फ तबाही की भयावह राख ही हाथ लगती है! परन्तु इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि कभी युद्धों में ऐसे अविष्कार भी होते हैं जो सम्पूर्ण मानवता के इतिहास में अनूठी छाप छोड़ते हैं। ऐसे ही एक आविष्कार की कहानी हम लाये हैं.
प्रथम विश्व युद्ध के घाव अभी भी हरे थे, द्वितीयविश्व युद्ध की आहट भर थी और इसकी तैयारियां शैशव अवस्था में थीं। शांति की बड़ी-बड़ी ढींगे हांकने वाले देश उस समय हथियारों के जखीरे तैयार करने में जुटे थे, स्वयं की तबाही के साजो सामान इतने विकसित हो चुके थे कि मिसाइल तकनीक ईजाद हुई। यानी अब लोगों की जानें और सस्ती हो चुकी थीं.
बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि जर्मनी ‘युद्ध विकास’ की पाठशाला जा रहा था. इस पाठशाला की पहली कक्षा थी ‘पीनेमुंडे’. जी हां, दुनिया को रॉकेट और मिसाइलों की तकनीक से परिचित करवाने वाला छोटा सा गांव जिसे कभी हिटलर ने कोई खास तवज्जो नहीं दी, लेकिन जब वो जंग हारा तो इसी गांव से माफी मांगी. 1934 में नाज़ी सरकार अपने बेहद ‘ख़ुफ़िया मिशन’ का अड्डा बनाने के लिए एक वीरान जगह की तलाश में थी. यह मिशन था मिसाइलों का गुपचुप निर्माण और परीक्षण करना। 1935 में जर्मन इंजीनियर वर्नहर फन ब्राऊन ने पीनेमुंडे गांव को मिसाइल के कारखाने के लिए एकदम उपयुक्त पाया.
पीनेमुंडे, जर्मनी की राजधानी बर्लिन से लगभग 270 किलोमीटर दूर बाल्टिक सागर में मिलने से पहले पीने नदी के मुहाने पर बसा एक गांव हैं. जहां आज जर्मनी का आर्मी रिसर्च सेंटर काम करता है. हिटलर के लिए यह गांव भौगोलिक दृष्टि से गुप्त और मशीन निर्माण व कारखानों को स्थापित करने हेतु उपयुक्त था. दुनिया को भनक लगे बिना नाजी सरकार यहाँ मिसाइल निर्माण का कार्य कर सकती थी। काम शुरू हुआ और करीब 12 हजार लोगों ने दिन-रात मशक्कत की, जिसमें से अधिकतर प्रथम विश्व युद्ध के बन्दी और यहूदी थे.

1939 में जब हिटलर ने युद्ध का आगाज किया तब कारखाने अधूरे ही थे, मशीन और औजारों के निर्माण के लिए धन की आवश्यकता थी परन्तु इन सब से इतर हिटलर का ध्यान युद्ध जीतने पर था और वो भी परम्परागत साधनों की मदद से। उसे यकीन था कि उसके सैनिक ही लड़ाई को जीत सकते हैं. इसलिए वह मिसाइल प्रोग्राम पर खर्चा न करके उसे बाकी युद्ध बंदोबस्त में लगाने के पक्ष में था. इसके परिणामस्वरूप कारखानों को मिलने वाले धन में कटौती हुई और निर्माण कार्य धीमा हो गया.

कम संसाधनों के बाद भी वैज्ञानिक मेजर जनरल डॉ. वाल्टर डॉर्नबर्गर और वर्नहर वॉन ब्रॉन ने इंजीनियर्स की टीम तैयार की और मिसाइल बनाने का काम जारी रखा. 1942 में वाल्टर ने जर्मनी के रॉकेटर एग्रीगेट 4(A-4) का कामयाब परीक्षण किया. ये दुनिया का पहला लंबी दूरी तक मार करने वाला रॉकेट था. दोनों वैज्ञानिकों को यकीन था कि यह मिसाइल दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी को जीत दिला सकती है. जर्मनी में नए हथियारों का विकास करने वाले अल्बर्ट स्पीर भी इस बात से सहमत थे, पर हिटलर को इसमें खास रूचि नहीं थी. इसके बाद दोनों वैज्ञानिकों ने सफल परीक्षण की एक फ़िल्म तैयार करवाई और उसे हिटलर को दिखाया. फिल्म देखने के बाद हिटलर ने इस मिसाइल के निर्माण को हरी झंडी दी, लेकिन तब तक युद्ध के मोर्चे पर बहुत देर हो चुकी थी. जर्मन फ़ौजें कई मोर्चों पर हार रही थीं. हिटलर ने काम में तेजी लाने के लिए यूरोप के अलग-अलग देशों से लाए गए यहूदी युद्धबंदियों को इस कारखाने में लगा दिया।

‘पीनेमुंडे’ वीरान इलाका था. यहां संसाधनों की कमीं थी, इसलिए आवाजाही भी कम थी. नाजी सरकार के ख़ुफिया मिशन को यहां सफलतापूर्वक अंजाम दिया जा रहा था. हालाँकि 1943 में ब्रिटिश ख़ुफिया एजेंसियों को ‘पीनेमुंडे’ में चल रहे मिसाइल निर्माण की खबर लग गई. 17 अगस्त 1943 को ब्रिटिश रॉयल एयरफ़ोर्स ने उस वक्त का सबसे बड़ा हमला ‘पीनेमुंडे’ पर किया. इस हमले को ‘ऑपरेशन हाइड्रा’ नाम दिया गया. इस हमले का एक ही मकसद था जर्मन रॉकेट के निर्माण को रोकना। उन्होंने बहुत बड़ी मात्रा में हवाई हमले किए. हालांकि यह हमले नाकाम रहे और मिसाइल कारखाने को कोई खास नुकसान नहीं हुआ. अब तक ब्रिटिश लोगों को इस जगह के बारे में पता चल गया था इसलिए इस फैक्ट्री की जगह को आगे चलकर बदल दिया गया। इसके बाद इसे मध्य जर्मनी के मितेलवर्क में शिफ्ट किया गया. वहां पर इस काम को फिर से शुरू किया गया मगर धीरे-धीरे जर्मनी हारने की कगार पर पहुँच गया. उनके पास संसाधन और पैसे दोनों ही नहीं थे कुछ निर्माण करने के लिए. मजबूरन एक बार फिर से रॉकेट बनाने के इस काम को रोकना पड़ा.

हालाँकि 1944 में लिक्विड प्रोपेलेंट की तकनीक पर आधारित v-2 रॉकेट इस्तेमाल इंग्लैंड पर हमले करने में इस्तेमाल किया गया था. लेकिन ये नाकाफी था और हिटलर को वर्नहर फन ब्राऊन और वॉल्टर के काम को कम करके आंकने की ग़लती का एहसास हुआ. हिटलर ने फील्ड मार्शल फन ब्राउचित्ज़च से माफ़ी मांगी। उसने वाल्टर डोर्नबर्गर से भी माफ़ी मांगी और कहा कि वो उनकी रिसर्च की अहमियत नहीं समझ सका था. दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी हार गया, लेकिन इसके बाद भी रॉकेट और मिसाइल तकनीक के विस्तार का काम रुका नहीं।
युद्ध के बाद अमरीका, रूस और ब्रिटेन की अगुवाई वाले मित्र देशों ने A-4/V-2 मिसाइल की तकनीक हासिल करने की कोशिश की. इस काम में जर्मन वैज्ञानिकों की मदद ली गई। नाजी जर्मनी में जो लोग इस तकनीक को विकसित करने पर काम कर रहे थे, उन्हें सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका ने अपनी ओर मिला लिया.
इनमें से वर्नहर फन ब्राऊन को अमरीका ने नागरिकता दी.फन ब्राऊन बाद में नासा के लिए काम करने लगे थे. उन्होंने अमरीका के मशहूर अपोलो मिशन के लिए काम किया. अपोलो मिशन से ही अमरीकी अंतरिक्ष यात्रियों ने चांद तक का सफ़र तय किया. पीनेमुंडे में हुए रिसर्च की बुनियाद पर आगे चलकर इंटरकॉन्टिनेंटल मिसाइलें विकसित की गईं।
इन्हीं की मदद से अंतरिक्ष में सैटेलाइट लॉन्च करने के लिए रॉकेट बनाए गए. शीत युद्ध के दौरान इस तकनीक को बेहतर बनाने पर काफ़ी काम हुआ. पीनेमुंडे की सबसे बड़ी विरासत हमें ये समझाती है कि तकनीक, इंसान की ज़िंदगी पर कितना गहरा असर डालती है.
समाज में इंजीनियरों और वैज्ञानिकों के रोल की अहमियत भी जर्मनी का ये गांव हमें समझाता है. पीनेमुंडे में स्थित म्यूज़ियम की देखभाल करने वाले डॉक्टर फ़िलिप औमान कहते हैं कि नई तकनीक का विकास हमारे वैज्ञानिकों की विरासत और कामयाबी की कहानियां कहता है.

पीनेमुंडे आज हमें इस बात का एहसास कराता है कि सही इस्तेमाल से तकनीक हमें चांद तक पहुंचा सकती है. तो ग़लत इस्तेमाल से इंसानियत तबाह भी हो सकती है।पीनेमुंडे को कलाकारों ने भी काफ़ी अहमियत दी है।
कैटालोनिया के पेंटर ग्रेगोरियो इग्लेसियास मेयो और मेक्सिकन कलाकार मिगुएल अरागोन ने इस म्यूज़ियम पर आधारित कई कलाकृतियां बनाई हैं. पीनेमुंडे को इन कलाकारों ने इंसानियत के तमाम एहसासों का प्रतीक बताया है. ये ज़ुल्म का भी प्रतीक है जहां यहूदी युद्धबंदियों का शोषण किया गया.
वहीं इंसान की अक़्लमंदी की भी ये मिसाल है जिसने इतनी शानदार तकनीक विकसित की.पीनेमुंडे जो कभी यूरोप की तबाही का केंद्र बनने की तरफ़ बढ़ रहा था, आज दुनिया भर के संगीतकारों की मेज़बानी करता है. 2002 में यहां पर एक बड़ा संगीत समारोह हुआ था। 2002 में इस म्यूज़ियम को शांति की कोशिशों के लिए अवॉर्ड मिला था.
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