आपने कई बार दुनिया भर के मुद्दों की मशाल लिए बीबीसी को भागते देखा होगा…..बहुत तेज भागते हैं ये लोग उस वक्त। चाहे मुद्दा भारत में लैंगिक समानता का हो, चाहे दिल्ली विधानसभा में महिला प्रत्याशियों का या फिर मुद्दा हो अफगानिस्तान की एक महिला गायिका के पहनावे का…..हर जगह बीबीसी ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और सुर्खियां बटोरी। नीचे ऐसे तमाम लेख दिए हैं जिन्हें पढ़कर आपको लगेगा कि बीबीसी कितनी सजग है महिला सशक्तिकरण के मुद्दों को लेकर…..
BBC का मीडिया जगत में काफी अच्छा हिसाब-किताब है। बड़े लोग बड़ी बातें….भई लगभग हर बड़े देश में इनके पत्रकार अपने स्तर पर काम कर रहे हैं। भारत में ही देख लो…..होली हो तो भारतीयों को पानी बचाने की नसीहत, दीवाली पर पटाखे न फोड़ने की नसीहत, जल्लीकट्टू प्रथा को खत्म करने की नसीहत, बलात्कारों को लेकर आये दिन नसीहत और तो और महिला सशक्तिकरण को लेकर भी नसीहत। अब हम आपको कइसे समझाएं भैया कि भारत तो हमेशा से मातृ भक्त देश रहा है, सिंधु घाटी की सभ्यता भी मातृ सत्तात्मक थी…..हम तो नारी शक्ति का सम्मान युगों-युगों से करते आये हैं, ये नारियों का अपमान और असमानता तो अंग्रेजी हुकूमत अपने साथ लेकर आई थी। चलो छोड़ो, हम तो भारतीय हैं, चार बातें कहीं से अच्छी मिलें तो ग्रहण करने में संकोच नहीं करते….सो महिला सशक्तिकरण वाली बात हमें बहुत अच्छी लगी, आपको याद होगा कि आपने कैसे महिला सशक्तिकरण के मुद्दे पर भारतीय महिलाओं के वीडियो बनाये थे और उनके सहारे आपने भारतीय समाज को कोसा भी था…..
अब आपको लिए चलते हैं बीबीसी की असल दुनिया में….असल में बात यह है कि पिछले हफ्ते चीन में बीबीसी की संपादक कैरी ग्रेसी ने संस्थान में पुरुष और महिला कर्मचारियों के बीच वेतन असमानता के विरोध में अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने बीबीसी में वेतन संबंधी व्यवस्था को रहस्यमय और अवैध बताया। एक खुले पत्र में ग्रेसी ने कहा कि जब से यह खुलासा हुआ है कि 1,50,000 पाउंड से अधिक कमाने वाले संस्थान के दो तिहाई दिग्गज पुरुष हैं, बीबीसी भरोसे के संकट से जूझ रहा है।
वास्तव में नीचे बीबीसी के सभी लेख खुद बीबीसी को आइना दिखाने वाले हैं और बीबीसी के प्रोपेगैंडा आधारित पत्रकारिता की पोल खोलने वाला भी है…..
यहाँ बीबीसी चुनावों में महिला प्रत्याशियों की संख्या पर सवाल उठा रहा! परन्तु यह भूल रहा है कि दिल्ली चुनाव ही महिला सशक्तिकरण के मुद्दे पर लड़ा गया। और जो भी योग्य और सक्षम महिलाएं राजनीति का रुख करती हैं, उन्हें ससम्मान ऊंचे ओहदे पर बिठाया भी जाता है। बीबीसी महिला सशक्तिकरण को महिला प्रत्याशियों की संख्या से आंकता है तो बताये कि ब्रिटेन में अभी तक सिर्फ दो महिला प्रधानमंत्री ही क्यों हुईं….जबकि वहाँ तो आधा ही सही लोकतंत्र की नींव हमसे पहले रखी गयी थी! मजेदार बात तो यह कि जब पूर्व आईपीएस किरण बेदी को भाजपा से मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार नियुक्त किया गया तो बीबीसी ही था जिसने किरण बेदी की छवि धूमिल करने की कोशिश की। तब इन्हें महिला सशक्तिकरण क्यों याद नहीं आया?
बीबीसी का लेख : महिलाओं की चिंता है पर उन्हें टिकट नहीं
बीबीसी को अफगानिस्तान की महिलाओं के भी हितों की चिंता है परन्तु ब्रिटेन की राजकुमारी पार्टी में एक काला जड़ाऊ पिन (Blackmoor broach) पहनकर नस्लभेद फैलाती नजर आती हैं
बीबीसी का लेख :इस महिला के वीडियो पर हंगामा है क्यों बरपा?
दीपिका पादुकोण के वीडियो का हवाला देकर कुछ महिलाओं के वीडियो भी बनाये….एक बात यहाँ बीबीसी को बहुत ही अच्छे से समझनी होगी कि भारतीय महिलाएं नासा, इसरो, गूगल सहित कई वैश्विक मंचों पर अपना दम दिखा रही हैं….रही बात घर-गृहस्थी की, तो वो एक भारतीय महिला का सबसे बड़ा गुण है जिसमें विश्व के किसी भी देश की महिलाओं से बहुत बेहतर हैं भारतीय महिलाएं….और भारतीय महिलाएं किसी के दबाव में घर नहीं सम्भालती बल्कि उन्हीं की बजह से एक घर असल में घर होता है!
Deepika Padukone: Male bashing or women’s empowerment?
कभी बीबीसी ने गूगल द्वारा महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले वेतन में असमानता के लिए गूगल की घेराबंदी की थी। गूगल में महिलाओं के प्रति हो रहे असमान व्यवहार की हम भरसक निंदा करते हैं परन्तु बीबीसी को अपने घर की रसोई चाहे गन्दी पड़ी रहे लेकिन पड़ोसी के घर में क्या पक रहा है, यह जानने का चस्का इतना क्यों है?
बीबीसी का लेख: क्या औरतों से भेदभाव करता है गूगल?
भारत में असमान वेतन और महिलाओं के अधिकारों को लेकर बड़े-बड़े लेख लिखे, लेकिन यहाँ पर मुद्दे की बात यह है कि भारत अभी विकासशील स्थिति में है और अंग्रेजों द्वारा 250 सालों में बोये गए बबूलों को काट रहा है…..जबकि महिलाओं के प्रति असमानता एक वैश्विक मुद्दा है, जिसका दोषी स्वयं बीबीसी भी है!
बीबीसी का लेख: महिला है, इसे कम वेतन दो….
गूगल में महिलाओं के साथ होते लिंगभेद को भी खास तबज्जो दी। अभी हमें यह समझना होगा कि किसी संस्था विशेष या देश को दोषी नहीं माना जा सकता क्योंकि महिलाओं के प्रति असमान व्यवहार एक वैश्विक समस्या है….इस मुद्दे को किसी संस्था विशेष के प्रति घृणित प्रोपेगैंडा चलाने के लिए प्रयोग किया जाना गलत है।
बीबीसी का लेख: गूगल के कर्मचारी ने महिलाओं के विषय में ऐसा क्या लिखा जिससे खलबली मच गई
देखिए कितनी बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं लिंगभेद को लेकर, परन्तु खुद बीबीसी की महिला कर्मचारी जब असमानता और भेदभाव का आरोप लगा रही हैं तब इन्होंने उन महिलाओं के आरोप सिरे से नकार दिए, क्या यह उन महिलाओं पर बीबीसी का एक और अत्याचार नहीं? बीबीसी प्रोपेगैंडा रहित पत्रकारिता नहीं कर सकता है क्या?
बीबीसी का लेख:महिलाओं को वेतन कम मिलता है?
भारत को पुरुष प्रधान देश बताकर, महिला सशक्तिकरण की बात पुरजोर तरीके से उठाई….एक ऐसा देश जो एक महिला को ‘डमी शासिका’ बनाकर सालों से बिठाए हुए है….इतने लंबे लोकतंत्रीय इतिहास में सिर्फ 2 महिला प्रधानमंत्री….. क्यों भई?
बीबीसी का लेख:क्यों महिलाएं निर्णायक भूमिका में नहीं?
जहाँ एक ओर देश की मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक कानून का स्वागत कर रही हैं, वहीं बिल पर बीबीसी का विधवा विलाप चल रहा था। जबकि स्वयं ब्रिटेन में अफ्रीकी मूल की महिलाएं खतने (जननांगों को काटना) की कुप्रथा से परेशान हैं, परन्तु बीबीसी तो दुनिया बदलने निकला है…..
बीबीसी का लेख: तीन तलाक़: जो मांगा वो मिला ही नहीं!
बीबीसी ब्रिटेन का न्यूज़ चैनल है, वही ब्रिटेन जिसने 250 सालों तक भारत की संपदा और यहां की महिलाओं की इज्जत को लूटा…..भारत को लूटने वाले समृद्धि पर ज्ञान पेल रहे हैं….
बीबीसी का लेख: क्या महिलाओं के लिए अलग बैंक की जरूरत है?
बीबीसी का इस तरह के किसी भी भेदभाव से इंकार। हाँ भई, आज बात खुद पर आई तो पल्ला झाड़ने में ही भलाई है। सारी दुनिया में महिला सशक्तिकरण का ढिंढोरा पीटने वाला बीबीसी आज इन आरोपों को नकार रहा है….आखिर ऐसा क्यों? दुनिया को महिला सशक्तिकरण का पाठ पढ़ाने वाला बीबीसी खुद के घर में झांक कर क्यों नहीं देखना चाहता। या यूँ कहें कि ज्ञान सिर्फ दूसरों को बांटने के लिए होता है….बीबीसी अपनी प्रोपेगैंडा वाली पत्रकारिता कई सालों से निरन्तर भारत में करता आ रहा है! आज खुद के ख़ंजर से जख्मी बीबीसी इस मामले पर क्या कहना चाहेगी?
हमें बीबीसी के महिला सशक्तिकरण या समानता को लेकर भारत में किये जा रहे सभी कार्यक्रमों पर एतराज है। हो भी क्यों न, बात सिर्फ पत्रकारिता की हो तो हजम हो जाती है परन्तु प्रोपेगैंडा हजम नहीं होता। यदि बीबीसी दीवाली पर पटाखों से होने वाले प्रदूषण को मुद्दा बनाता है तो न्यू ईयर पर 100 से ज्यादा देशों में होने वाली आतिशबाजी क्या पर्यावरण संतुलन के लिए जरूरी है? भारत में महिला अधिकारों को उठाने वाला बीबीसी खुद की कम्पनी की व्यवस्था को क्यों नहीं सुधारता , जिसमें महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव होते हैं।
यहां सुनिए, क्या कहा कैरी ग्रेसी ने –
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