सनातन शक्ति का स्वरूप अक्षय तृतीया
सनातन संस्कृति में शक्ति का रूप अक्षय है। अक्षय का मतलब है, जिसका कभी क्षय-ह्रास न होता हो। जो कभी कम नहीं होता हो, यानी घटता नहीं हो। कभी नष्ट न होने वाली वह अनादि अक्षय शक्ति जब वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि से जुड़ती है तो यह स्वत:सिद्ध तिथि हो जाती है। अक्षय शक्ति और वैशाखी तीज, दोनों मिलकर बनते हैं एक अनुपम महासंयोग-अक्षय तृतीया। जनभाषा में अक्षय तृतीया का नाम है आखा तीज। परंपरा ने काल को अक्षय मानकर इस तिथि को सबसे पहली तिथि माना। आखा तीज का संबंध अनाज से भी जुड़ा है। आखा यानी अनाज। इस नाते अनाज के खेत से घर आ जाने का पर्व है-आखा तीज। अनेक अंचलों में खेतों से अनाज के घर आने पर महीने भर वैशाखी का बड़ा उत्सव ही मनाया जाता है। लेकिन इन सबके भीतर नर-नारी का दाम्पत्य-जोड़ा बनाने के लिए यह तिथि सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
अक्षय तृतीया शब्द में तृतीया का संबंध शिवप्रिया माता पार्वती से है। ज्योतिषियों के मत से तृतीया तिथि की स्वामिनी माता गौरी है। वे स्वयं तो नित्य सौभाग्यवती हैं ही, अपनी भक्त-नारियों को भी अमर सौभाग्य का दुर्लभ वर देती हैं। इसीलिए पौरोहित्य शास्त्र में अक्षय तृतीया का दिन विवाह करने के लिए सर्वाधिक प्रशस्त हो गया। इतना प्रशस्त कि इस दिन कोई भी शुभ कार्य की शुरूआत करने के लिए न किसी ज्योतिषी से मुहूर्त निकलवाने की आवश्यकता और न ही कोई दिन-शकुन विचार करने की जरूरत। परंपरा में यह तिथि ‘अबूझ’ है। इतनी अबूझ कि सारे मांगलिक कामों के लिए यह वर्ष भर के सबसे शुभ दिन के रूप में स्वीकृत है। इस नाते अक्षय तृतीया स्वर्ण और रजत खरीदने के दिनों में शामिल हो गया। नया कुछ भी खरीदना हो तो लोग अक्षय तृतीया की प्रतीक्षा करते हैं।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान विष्णु ने इस तिथि को इतना महत्व प्रदान किया। महर्षि जमदग्नि की तपस्विनी भार्या रेणुका के गर्भ से स्वयं नारायण ही भगवान परशुराम के रूप में अवतरित हुए। परशुराम ने प्रजा को सुखी व समृद्ध करने के लिए धर्मच्युत दुराचारी शासकों का अंत किया। दूसरी ओर कालगणना के हिसाब से चार युगों में से सर्वप्रथम ‘सत्य युग’ का आरंभ भी कभी अक्षय तृतीया से ही हुआ था। आदित्य पुराण के अनुसार स्वर्ग में विचरती माता गंगा अक्षय तृतीया को ही स्वर्ग से महादेव की भारी जटाओं में उतरी थी। इस नाते अक्षय तृतीया की सनातन परंपरा का सीधा संबंध नारी और नदी, दोनों से है।
भारतीय संस्कृति जिस शाश्वत सत्ता पर आधारित है, वह प्रतिज्ञा आदिकवि महर्षि वाल्मीकि की है – इदं रामायणं कृत्स्नं सीतायाश्चरितं महत्। अर्थात ‘रामायण’ ग्रंथ श्रीराम का नहीं बल्कि संपूर्ण रूप से सती सीता का पावन चरित है। वाल्मीकि की इस उद्घोषणा से यह स्पष्ट है कि हमारे श्रद्धा और विश्वास के सारे धर्मग्रंथों के केंद्र में नारी है, चाहे वह रामायण हो या महाभारत। माता सीता की कठोर पातिव्रत्य साधना हो या याज्ञसेनी द्रौपदी की महापाप से टकराने की अचल शक्ति। इतिहास ने जब कभी नारी का अपमान किया तो परिणाम में उसे भुगतना पड़ा नाश और महानाश। वहीं जब कभी स्त्री की मान-मर्यादा का आदर हुआ तो संसार में मानवता पल्लवित और पुष्पित हुई। नारी श्रद्धा, वंदना और आस्था की प्रतिमूर्ति है। वह संसार की जननी है। वह पूरे विश्व को अपने अंक में खिलाती है। अपनी गोद में सर्जन और विसर्जन दोनों को पालती है। धरती पर ऐसी नारी ही है जो निर्माण और संहार दोनों को पैदा करने का सामथ्र्य रखती है। नारी राम और रावण दोनों को जन्म देती है। वही कृष्ण और कंस बनाती है। हकीकत में माता के वात्सल्य भरे परिवेश में ही मनुष्य की इच्छा, ज्ञान और क्रिया का स्वस्थ तथा समुचित विकास होता है। दूसरी ओर यही नारी नदी के रूप में बहकर जन-मन में सुख, सौभाग्य और संस्कारों की त्रिवेणी बन जाती है।
आखा तीज: नारी के सम्मान का पर्व ‘बाल विवाह’ के लिए नहीं ?
भारतीय मन नारी में तेज और दीप्ति का प्राधान्य देखता है। नारी एक शरीर नहीं बल्कि भगवती शक्ति है। इसका रूप सत्व, रज और तम से त्रिगुणान्वित है। सारे शास्त्र नारी को ‘देवी’ कहते हैं। इसी से हमारे यहां नारी के नाम के साथ ‘देवी’ शब्द जोडऩे की प्रथा है। कन्या के नाम के आगे या पीछे ‘कुमारी’ तो विवाहिता स्त्री के साथ ‘देवी’। आजकल भले नई पीढ़ी की लड़कियां और महिलाएं अपने नाम के आगे ‘कुमारी’ तथा ‘देवी’ शब्द लगाना पसंद नहीं करती हो पर हैं ये बड़े अर्थ-गंभीर और दैदीप्यमान शब्द। इन दोनों शब्दों के अनुसार प्रत्येक भारतीय नारी अपने-आप में ज्योतिर्मय सत्ता है, जो उसे अक्षय बनाती है।
इसी नाते अक्षय तृतीया का संबंध ज्योतिर्मय स्त्री से है। परंतु नारी के जिस रूप से अब आखा तीज का सामना हो रहा है, वह दुखी करता है। प्राय: देखा जाता है कि कुमारी कन्या की शारीरिक व मानसिक परिपक्वता के बिना ही उसे विवाह बंधन में बांधने की तो खुद आखा तीज ने भी कभी न सोची थी। बाल विवाह जैसे अभिशाप ने नारी को सम्मानित करने के बजाय भारी अपमानित किया है। यह अभिशाप अक्षय तृतीया के हजारों-लाखों साल पुराने शास्त्रीय स्वरूप पर भी विद्रूपित कलंक लगा रहा है। निश्चित आयु के पहले कन्या को ब्याहना सारी परंपरा को नीचे मुंह दिखाने पर विवश करता है। ऐसे में यदि हम अक्षय तृतीया को जरा भी मानते हैं तो फिर हमें बाल विवाह जैसे भीषण पाप से बचना होगा। साथ ही संकल्प करना होगा कि बेटी को तभी ब्याहेंगे जब वह जननी बनने के योग्य हो सके। सच्चे मायने में आखा तीज यही है।
अक्षय तृतीया चेतना व अतुल्य शक्ति से भरी उन नारियों को भी याद करने का दिन है जिन्होंने समाज को बदलने का साहसिक प्रयत्न किया। कहीं माता साता के रूप में अपने चरित की शुद्धता के प्रमाण से तो कहीं दुर्योधन और कर्ण जैसे पापियों से टकराने से द्रौपदी। कभी उसी नारी मदालसा ने अपने पुत्रों को ही साधु बना दिया तो कभी ले तंबूरा मीरां ने महलों को छोड़ कृष्ण को पाने के लिए घर की चौखट को लांघा। नारी चेतना है, जो हमें प्रेम देती है। यह प्रेम वासनारूप नहीं बल्कि ज्ञान का निर्मल स्वरूप है, जिससे संसार को नवीनता मिलती है, जो अक्षय निर्माण करता है। यह चेतना प्रेम के साथ समर्पण और आनंद बांटने वाली वात्सल्य की सुहानी छाया है। वैदिक काल की ब्रह्मवादिनी गार्गी, मैत्रेयी, अपाला से लेकर पन्ना धाय और लक्ष्मी बाई जैसी अनेक अमर नारियों ने भारत के इतिहास को स्वर्ण आभा से प्रकाशित किया है। अक्षय तृतीया नारी को पूजने और उसके सम्मान को मानने का पर्व है।
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