सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। इसे भारतीय दंड संहिता की डेढ़ सौ साल पुरानी धारा 497 के तहत अपराध माना जाता था, जिसकी वैधानिकता सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दी है। यह फैसला आने के बाद ज्यादातर लोग जो व्याख्या कर रहे हैं, वह स्त्रीपुरुष केनाजायजसंबंधों पर टिकी है। कोर्ट के आदेश को महिला उत्थान की दिशा में बताने वाले इसे ऐतिहासिक फैसला मान रहे हैं। उनका दावा है कि इस फैसले ने केवल स्त्री की आजादी बल्कि उसकी यौन स्वतंत्रता भी संरक्षित होगी। शरीर स्त्री की निजी संपत्ति है, इस नाते उसे किससे संबंध बनाने हैं, यह फैसला करने का अधिकार स्त्री को है। ये लोग स्त्री की यौन आजादी के साथ ही उसकेपतिपरमेश्वरकी संपत्ति नहीं होने के आदेश पर उत्सवनुमा माहौल तैयार कर रहे हैं। 

कोर्ट के फैसले से कई सवाल पैदा होते हैं, जिनके जवाब जरूरी हैं। क्या पश्चिम की परंपराओं की फोटोकॉपी करने में हम लगातार इतने मशगूल हो रहे हैं कि हमने अनैतिक को सही साबित करना शुरू कर दिया है? क्या यूरोप की संस्कृति हम पर हावी हो रही है? कहीं उसने समाज के साथ ही सुप्रीम कोर्ट का भी गला तो नहीं पकड़ लिया है? लगता है कि पश्चिमी भोगवादी समाज में तब्दील हो जाना हमारा स्वप्न बन गया है। इस समाज में स्त्री की देह मांस से ज्यादा नहीं रह गई है। खानपान, पहनावा और फिल्मों के भद्दे दृश्य चारों ओर उत्तेजना के वातावरण का सृजन कर रहे हैं। मोबाइल हर हाथ तकपोर्नपहुंचाने का साधन बन गया है। ऐसे में कोर्ट को विचारना चाहिए कि भोग के उन्मत्त वातावरण मेंसैक्सुअलजीवन कब तक पवित्र बना रह पाएगा? वह भी तब जब गर्भपात के साधन मौजूद हैं। गर्भनिरोधक गोलियां हैं। यौन उत्तेजना पैदा करने वाली दवाएं हैं और पानसुपारी की तरह हर जगह कंडोम उपलब्ध है। ऐसे में दुनिया के सबसे पुराने देश का सांस्कृतिक जीवन कैसे बचा रहेगा? व्यभिचार को वैध करने से नैतिक जीवन और उससे होने वाले राष्ट्र निर्माण का क्या होगा? इस यक्ष प्रश्न का जवाब दिए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। 

पुरातन काल में धर्म और अधर्म की एक परिभाषा थी। जिसका मतलब है कि वेदादि शास्त्र जिन कामों को करने का प्रतिपादन करते हैं, वह धर्म है। ठीक ऐसे ही वेदपुराणों से विपरीत आचरण अधर्म है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि जिस काम को करने में डर है, संकोच है, हिचकिचाहट है, वह दुराचरण है। यह दुराचरण पाप है, अपराध है, अवैध है। ऐसा दुराचरण किसी भी स्त्री या पुरुष के लिए सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के आधार पर निषेध है। ये दुराचरण चोरी, झूठ, जुआ, रिश्वत, मद्यपान और व्यभिचार है।  

इच्छाशक्ति के उन्मत्त वातावरण में चारित्रिक उत्थान की नाव को डूबने से बचाने का काम सरकार और न्यायालय, दोनों का है। लोकतंत्र, अधिनायकवाद, समाजवाद, राष्ट्रवाद या साम्यवाद जैसा कोई भी विचार हमें स्वीकार हो, पर हर हालत में हमें एक सदाचारी समाज चाहिए। एक चरित्रवान और सच्चा शासक चाहिए। ईमानदार नागरिक और मेहनती अफसर चाहिए। अच्छे मातापिता, अच्छा भाई, अच्छी बहन के साथ ही सदाचारी पत्नी चाहिए। राजनैतिक तथा आर्थिक व्यवस्था बदल जाने से भी यह जीवन प्रणाली नहीं बदल सकती। जिस देश ने हजारों साल तक इस्लामियत और ईसाइयत की गुलामी सहकर भी इन मानकों को नहीं बदला, उस आजाद देश की सर्वोच्च अदालत ने हजारों साल पुरानी चारित्रिक शुचिता को एक झटके में बदल डाला। जिससे अब व्यभिचार अपराध नहीं रह गया है।  

याज्ञवल्क्य स्मृति कीमिताक्षराटीका के मत से संभोग के लिए किसी परपुरुष एवं परस्त्री का एक होना तीन प्रकार का है। पहला बल से। दूसरा है धोखे से। वासना तीसरा प्रकार है। पहला तरीका बलात्कार है। दूसरा प्रकार वह है, जिसमें किसी स्त्री से छल करके या उसकी परिस्थिति का दुरुपयोग करके संभोग किया जाए। तीसरा है स्त्री या पुरुष का अपने साथी से असंतुष्ट होकर चोरीछिपे संभोग करना। पहले के लिए मृत्यु दंड की शास्त्रीय व्यवस्था है। धोखे से संभोग करने पर कारावास है। व्यभिचार करने वाले स्त्री और पुरुष के लिए देशनिकाला है। स्पष्ट है कि व्यभिचार को पुरातन काल से ही अधर्म और अन्याय की श्रेणी में रखा गया है ठीक ऐसे ही, मनुस्मृति जैसे प्राचीन संवैधानिक ग्रंथ में स्त्री अपनी स्वामिनी खुद है पर वह अपने पति के धन का व्यय स्वतंत्र रूप से नहीं कर सकती। हालांकि मातापिता और अपने भाइयों द्वारा दी गई संपत्ति के उपयोग, व्यय या दान के लिए उसे पूरी तरह से स्वतंत्रता दी गई है। वहीं, महाभारत की द्यूत क्रीडा में द्रौपदी का धर्मराज युधिष्ठिर को कहा एक वाक्य प्रसिद्ध है कि पत्नी पर पति का अधिकार स्वत:सिद्ध है। अत: युधिष्ठिर द्वारा जुए में स्वयं को हार जाने के बाद द्रौपदी को दाव पर लगाने का वह विरोध करते हुए कहती है कि पति के हार जाने पर पत्नी स्वयं ही पराजित हो जाती है, इसलिए उसे अलग से दाव पर नहीं लगाया जा सकता 

अनैतिक कार्य जरूरी नहीं है कि अधर्म ही हो पर इतना तो है कि वह परिवार, समाज और राष्ट्र की हजारों साल पुरानी परंपरा की संवेदनाओं को तोड़-मरोडक़र पैदा होता है। सांस्कृतिक संवेदनाओं का गला घोटकर वह नया इतिहास रचता है। जिसमें वह भूल करता है कि भारत सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान है। लेकिन वह भोजन, विलास और मादकता से कहीं आगे है। उसे लंका बना देने की मंशा भारी भूल है। भारत एक पंरपरा है। सांस्कृतिक जन समुदाय का समूह है। विश्व के सबसे पुराने वैदिक साहित्य और रामायण-महाभारत की रचना भूमि है। उसके पास यौन संवेदनाओं की पवित्र नगरी अयोध्या है। जिसके आदर्श राम और सीता हैं। इनके दास ब्रह्मचर्य के सर्वश्रेष्ठ प्रतिमान हनुमान हैं।


अनैतिक कार्य जरूरी नहीं है कि अधर्म ही हो पर इतना तो है कि वह परिवार, समाज और राष्ट्र की हजारों साल पुरानी परंपरा की संवेदनाओं को तोड़मरोडक़र पैदा होता है। सांस्कृतिक संवेदनाओं का गला घोटकर वह नया इतिहास रचता है। जिसमें वह भूल करता है कि भारत सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान है। लेकिन वह भोजन, विलास और मादकता से कहीं आगे है। उसे लंका बना देने की मंशा भारी भूल है। भारत एक पंरपरा है। सांस्कृतिक जन समुदाय का समूह है। विश्व के सबसे पुराने वैदिक साहित्य और रामायणमहाभारत की रचना भूमि है। उसके पास यौन संवेदनाओं की पवित्र नगरी अयोध्या है। जिसके आदर्श राम और सीता हैं। इनके दास ब्रह्मचर्य के सर्वश्रेष्ठ प्रतिमान हनुमान हैं। 

मौजूदा घोर मौलिकतावादी युग में इच्छाशक्ति का उन्मत्त नर्तन हो रहा है। समाज की स्थिति और आकांक्षाएं करवट ले चुकी हैं। भारत एक ऐसे दोराहे पर खड़ा है, जहां एक ओर वैज्ञानिक अनुसंधानों का बीहड़ जंगल है तो दूसरी और लगातार भोग करने की उद्दाम लिप्साएं हैं। अधिक से अधिक भोग करने की छटपछाहट है। ऐसे में यूनान, मिस्र और रोम की संस्कृति के मिट जाने पर भी खुद के बचे रहने का दावा करने वाली भारतीय संस्कृति केनामोनिशांयदि बचे हैं तो इसके पीछे एक सनातन रहस्य है। वह है सामाजिक व्यवस्था मेंसेक्सकी पवित्रता पर जोर। यौन संवेदनाओं पर धर्म, समाज और चरित्र का नियंत्रण। दुनिया की किसी जाति, धर्म, राष्ट्र और भाषा ने नारी के सतीत्व पर इतना जोर नहीं दिया, जितना हमारे पुरखों ने दिया। धर्म और साहित्य के सुदीर्घ इतिहास में आज तक किसी ने दाम्पत्य जीवन को लेकर ऐसा ग्रंथ नहीं लिखा, जैसा भारत में लिखा गया। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचितरामायणचरित्र और अर्थ की शुचिता के साथ ही यौनशुचिता का अनुपम दस्तावेज है, जो भारतीयों के लिए श्रद्धा, वंदना आस्था का केंद्र है। एक विदेशी विद्वान का कथन प्रसिद्ध है कि जिस समुदाय की सैक्सुअल लाइफ जितनी पवित्र होगी, वह उतनी ही दीर्घजीवी होगा।

कोई भी व्यवस्था तो पूर्ण होती है और ही दोषपूर्ण प्रवृत्तियों से मुक्त। किसी भी स्थान विशेष में शुरू किए गए आरंभकालिक धर्मसदाचार पूर्ण लाभदायी होते हैं। धीरेधीरे दुरुपयोग और विकृतियां उन्हें घेर लेती है। बहुपत्नीवाद तथा बहुपतिवाद ऐसी ही परंपराएं रही हैं, जो समाज में लंबे कालखंड तक फैली रही है। पर हमारा जीवंत इतिहास हमें व्यभिचार से दूर जाकर चरित्रवान बनने की प्रेरणा देता है। जिससे भारत नैतिक मूल्यों के उत्कर्ष का नेतृत्व करता रहे। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो भारत का किसीपागलखानेमें परिवर्तित हो जाना तय है, जहां संयमनियम की बात करना बेमानी होगा और इच्छाचारिता से भोग करना गौरव।


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि दआर्टिकल.इन उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए आप हमें लिख सकते हैं या लेखक से जुड़ सकते हैं.@Kosalendradas

ये भी पढ़ें :

आस्था का फैसला अदालत में क्यों?

मंटो : वो लेखक जिसे जलियांवालाबाग़ के मंजर ने सनकी, बेबाक और भौंडा लिखना सिखा दिया


शास्त्री कोसलेन्द्रदास
लेखक संस्कृत-विज्ञ एवं राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं.