जब कॉमरेड्स का सामना तर्क से होता है तो वो विचारों और आदर्शों की गोद में जाकर बैठ जाते है. जी हाँ लेनिन की मूर्ति तोड़ने का विरोध करने वाले कोमरेडों से जब पूछा जा रहा है कि इन महाशय ने भारत के लिए क्या किया तो ये अपने मूल चरित्र से उलट नैतिक शिक्षा की बात करने लगे की आदर्शों को किसी सरहद में बांध के नही रखा जा सकता, भारत के बहुत से महापुरुषों की मूर्तियाँ दूसरे देशों में लगी है, उसी तरह लेनिन की यहाँ.
लेकिन यहाँ सवाल ये है जिसकी मूर्ति अपने ही देश में तोड़ दी गई हो और जिसकी विचारधारा को भी नकार दिया गया हो उसे हमारा देश क्यों माने? और रही बात भारतीय महापुरुषों की तो उनके विचार आज भी प्रासंगिक है और भारत के लोग आज भी उन्हें देश का गौरव मानते हैं इसी लिए वो विदेशों में भी निर्विवाद और सम्मानित हैं. जिस दिन इन भारतीय महापुरुषों के विचारों से किसी देश की अखंडता और एकता को खतरा लगे उस देश की शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक व्यवस्था को खतरा लगे उस दिन वो भी उनकी मुर्तिया तोड़ दें वो ही क्यों हमारे देश में भी ऐसा ही हो.
खैर, अब इनकी ही बात पर आते हैं कि विचारधारा और आदर्श को किसी देश की सरहद नहीं रोक सकती. तो इन्हें एक और चरित्र को याद करना चाहिये. हम बात करने वाले हैं एक विदेशी महिला की जो भारत में पैदा नही हुई भारत में शिक्षित नहीं हुई पर अपना पूरा जीवन भारत देश की दुखी, बेबस और गरीब जनता की सेवा में और भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार में बिता दिया. भगिनी निवेदिता (मार्गेट एलिज़ाबेथ नोबेल) इस नाम का जिक्र करना आज बेहद जरुरी है. भगिनी निवेदिता का कोलकाता से गहरा नाता है, और वामपंथियों का भी. भारत में साम्यवाद की पकड़ पश्चिम बंगाल से ही मजबूत हुई थी. आज बंगाल की सत्ता से तो लेफ्ट गायब है पर लेफ्ट का सेंटर(हेड क्वार्टर) आज भी कोलकाता ही है. आज निवेदिता ही इसलिए क्योकि इन्हें (वामपंथियों और लेनीन की मूर्ति गिराने का विरोध करने वालों को) विदेशी ही पसंद है, हमें भी है पर अच्छे विदेशी. इस बार महिला दिवस के भी खास हो गया क्योकि ये साल निवेदिता के जन्म का 150वें साल के रूप में मनाया जा रहा है 28 अक्टूबर 1867 में आयरलेंड में जन्मीं निवेदिता की 28 अक्टूबर 2017 को 150वीं जयंती वर्ष के रूप में मानना शुरू हुआ है जिसके कार्यक्रम उनकी 151 वीं जयंती तक अनवरत चलते रहेंगे.

निवेदिता की भारत यात्रा और उनके सेवाकार्य
अमेरिका में स्वामी विवेकानंद से भेंट के बाद 28 जनवरी 1898 को वे कोलकाता पहुंची. विवेकानंद और उनके साथी गुरु भाइयों के सहयोग से उन्हें भारत और भारतीय संस्कृति के बारे में बताया गया उन्हें हिन्दू ग्रन्थों का अध्ययन करवाया. भारत के हालात की जानकारी होने के बाद सिस्टर निवेदिता वापस अमेरिका और इंग्लेंड गई जहाँ उन्होंने भारत पर व्याख्यान किये और बालिका शिक्षा के लिए फंड जुटाया और 1898 को कालीपूजा के दिन कोलकाता के बागबाजार में उन्होंने स्कूल का शुभारंभ किया.
कोलकातामें 1899 में आई भीषण बीमारी प्लेग के दौरान सिस्टर निवेदिता ने रोगियों की देखभाल की, बीमारी वाले इलाकों को साफ किया एवं कई युवाओं को आगे आकर इस तरह की सेवा करने के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन दिया. उन्होंने अंग्रेजी अखबारों में अपने प्लेग रिलीफ गतिविधियों एवं प्लेग से छुटकारा पाने के लिए आर्थिक मदद की अपील की. वे महामारी की रोकथाम के लिए हिदायतें देती थी.
ये भी पढ़ें –
आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाला वो पत्रकार जो साधुओं को बेनकाब करने चला, पर खुद साधू बन गया
लिंगायतों के सहारे रोजगार तलाशती भारतीय राजनीति!
[zombify_post]


