Lingayat seer’s participation for separate religion status for Lingayats; Photo: deccanchronicle.com

हिन्दू धर्म जो कि एक संयुक्त परिवार है, उसके एक बेटे ने अलग घर बसाने की जिद पकड़ ली है। अक्सर देखा जाता है कि घर का खुशनुमा माहौल चल रहा होता है परन्तु अचानक किसी दुर्जन के बहकावे में आकर बच्चे माँ-बाप से बंटवारे की जिद करते हैं। यह बेटा है कर्नाटक का लिंगायत समुदाय…



लिंगायतों की मांग:

लिंगायत समुदाय के एक नेता एस. एम. जामदार ने साफ शब्दों में कहा है कि वे अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त नहीं करना चाहते, उनके समुदाय की अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त करने में कोई रुचि नहीं, बल्कि वे एक धर्म की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं।



लिंगायत समाज और उनकी रीतियाँ!

लिंगायत समाज बसवन्ना को अपना आराध्य मानते हैं, जो कि लिंगायत दर्शन के प्रवर्तक थे। यह समुदाय शवों को हिन्दू परम्परा के अनुसार जलाता नहीं बल्कि दफ़नाता है। दफनाने की यह रीति दो तरह से की जाती है – एक शव को बैठाकर और दूसरा शव को लिटाकर। कई जगह लिंगायतों के अलग कब्रिस्तान भी बने हैं। इस समुदाय के लोग शिव की पूजा नहीं करते परन्तु शिवलिंगनुमा एक वस्तु अपने पास रखते हैं तथा उसे आत्मिक शक्ति से जोड़कर देखते हैं। कई जानकार और शोधकर्ता लिंगायत और वीरशैव को पर्याय मानते हैं परन्तु लिंगायत समुदाय सदैव खुद को पृथक दर्शाता रहा है।
 

वास्तव में क्या है लिंगायत दर्शन?

लिंगायत दर्शन, जिसकी नींव 12वीं शताब्दी के महान दार्शनिक या विचारक बसवन्ना ने रखी। लिंगायत को मैंने दर्शन इसलिए कहा क्योंकि बसवन्ना ने तत्कालीन परिस्थितियों को अनुभव किया, समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ अपने विचार प्रतिपादित किये। एक जीवन दर्शन दिया लोगों को, जिसमें चेतना की जागृति और शुद्धता पर बल दिया गया। जीवन जीने का एक तरीका लोगों को दिया, जो उस समय कुछ कुरीतियों से जन-मानस को बचाने में मददगार था।

विद्रोही नहीं विरोधी थे बसवन्ना!


Statue of Philosopher and leader of Lingayat community, Basaveshwara at Basava Kalyana, Karnataka.

बसवन्ना कोई विद्रोही नहीं थे, बल्कि विरोधी थे। जी हाँ, समाज में व्याप्त खामियों के विरोधी थे, उनकी कुछ शिकायतें थी समाज के तथाकथित ठेकेदारों से। ये ऐसा ही रहा जैसे आज कोई सुधारक नशामुक्ति, महिला सशक्तिकरण या भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर अपने विचार रखे और आंदोलन करे। आज का जन-मानस इन बुराइयों से जूझ रहा है अतः वह उस सुधारक के साथ हो लेगा और आंदोलन को शक्ति, समर्पण तथा समय देगा…..परन्तु हम ऐसा नहीं करते कि उस सुधारक के नाम पर एक नए धर्म की मांग करने लगें।

धर्म या दर्शन:

सनातन धर्म कई दर्शनों का जनक रहा है, इसमें पतंजलि, गोरखनाथ, कबीर, महावीर तथा बुद्ध जैसे अनेक विचारक हुए। सभी ने अपने महान विचारों से इस धर्म को और अधिक समृद्ध बनाया, परन्तु सभी विचारकों के मानने वाले यदि नए धर्म की मांग करने लगेंगे तो यकीन मानिए समाज ऐसे विखण्डन की स्थिति में चला जायेगा कि मानव सभ्यता में स्थिरता और सामंजस्य के जो भी पैमाने हैं, ध्वस्त हो जाएंगे!

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लिंगायत:

आज लिंगायत समाज जिसकी आबादी कर्नाटक की कुल आबादी का 17% है, अल्पसंख्यक धर्म के तमगे की मांग कर रहा है। हिन्दू होने के बावजूद ये अलग धर्म की मांग आखिर कर क्यों रहे हैं? इस प्रश्न का उत्तर मिलेगा आपको कर्नाटक की वर्तमान परिस्थितियों में। वर्तमान में लिंगायत समुदाय अलग धर्म की मांग कर स्वयं पर अल्पसंख्यक होने का चिप्पा चिपकवाना चाहता है। यह मांग कोई नई नहीं है, पहले भी उठती रही है। यदि इतिहास में झांके तो इस मुद्दे के घनघोर राजनैतिक सम्बन्ध रहे हैं…..

राजनीतिक पृष्ठभूमि पर हुकुम का इक्का है यह मुद्दा!

यूँ तो लिंगायत समुदाय का प्रभाव कर्नाटक में काफी पहले से रहा है, परन्तु 80 के दशक में घटनाओं ने नाटकीय मोड़ लेना शुरू कर दिया। इस दौर में लिंगायतों का भरोसा रामकृष्ण हेगड़े(जनता दल) पर था, परन्तु जल्दी ही ये भरोसा टूटा और लिंगायत वीरेंद्र पाटिल(कांग्रेस) के ओर झुक गए। पाटिल ने सरकार बनाई परन्तु राजीव गांधी ने पाटिल को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया, इससे लिंगायतों ने फिर रामकृष्ण हेगड़े की ओर रुख किया। लिंगायत हेगड़े के साथ तब भी रहे जब वे जनता दल छोड़ जनता दल यूनाइटेड में आये। लिंगायतों के समर्थन की बजह से ही भारतीय जनता पार्टी केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी जी के नेतृत्व में सरकार बनाने में सफल रही। हेगड़े की मृत्यु हुई और एक बार फिर लिंगायत समुदाय के सामने अपने नेता का चुनाव करने का समय आया। इस बार नाम था बी.एस. येदुरप्पा। यही कारण था कि 2008 में येदुरप्पा को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली।

राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए राष्ट्र-वृक्ष को काटकर भी लकड़ियां जुटाई जा सकती हैं!

कर्नाटक में फिर एक बार विधानसभा चुनावों की तैयारियां जोरों पर हैं, परन्तु अलग धर्म को लेकर लिंगायतों द्वारा उठाई गयीं मांग ने राजनीतिक गलियारों में गर्मी बढ़ा दी है। भारत देश के किसी भी कोने में चुनाव क्यों न हो, लड़ा हमेशा जाति, धर्म और नागरिकता को लेकर ही। 21वीं शताब्दी में भी मुद्दा घर, रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं में सुधार न होकर हमारी जाति और हमारा मजहब होता है।



इसी बात को भुनाने में राजनीतिक दल हमेशा लगे रहते हैं, कोई विकास की बात नहीं करता, कोई अखण्डता की बात नहीं करता बस बात करते हैं तो, देश को तोड़ने की। फिर चाहे वो जाति के नाम पर हो या धर्म के नाम पर। कभी जैनों को, कभी गुर्जरों को, कभी पटेलों को, कभी दलितों को तो कभी लिंगायतों को बरगलाकर, ये राजनीतिक दल अपनी राजनीति चमकाते रहे हैं।



इस तरह की मांगों के दुष्प्रभाव

जाति और धर्म के नाम पर खण्ड-खण्ड में बँटा हुआ राष्ट्र कभी प्रगति की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता, समृद्धि की ओर अग्रसर नहीं हो सकता। इस तरह की फिजूल मांगें सिर्फ राष्ट्र को कमजोर बनाती हैं और राजनीतिज्ञों को मजबूत। इन्होंने पहले भी धर्म के नाम पर राज्यों का गठन किया है, भाषा के नाम पर लोगों को आपस में लड़वाया है। हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण हैं – आंध्रप्रदेश, विदर्भ, तेलंगाना……जैन, बौद्ध, दलित……आम जन-मानस तो सुबह से शाम तक सिर्फ रोजी-रोटी और अपने परिवार के भरण-पोषण की जद्दोजहद में ही लगा रहता है साहब। ये हिन्दू-मुस्लिम, ब्राह्मण-दलित, हिंदीभाषी-मराठी और लिंगायत-हिन्दू तो आपकी रोजी-रोटी के साधन हैं!