नरेंद्र मोदी जब मुख्यमंत्री थे तब उनके चुनावी प्रचारों के मुख्य नारें ‘गुजरात की अस्मिता’ के इर्द-गिर्द घुमा करते थे. बात भले मियां मुशर्रफ, आतंकवाद, एकमत गुजरात या जीतेगा गुजरात की होती थी लेकिन अंत में सबकी कड़ियाँ ‘गुजरात की अस्मिता’ से जुड़ जाती थी.
समय बदला और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने. 2014 से लेकर 2019 तक गुजरात में नरेंद्र मोदी ने तीन दफे बड़े स्तर पर चुनावी प्रचारों को अंजाम दिया. इन चुनावी प्रचारों में खास बात यह रही कि पहले जो नारे ‘गुजरात की अस्मिता’ के लिए लगते थे वे अब ‘गुजराती की अस्मिता’ या ‘गुजराती अस्मिता’ के लिए लगने गए.
बेशक़ महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और मोरारजी देसाई के बाद नरेंद्र मोदी सबसे चर्चित गुजराती नेता हैं. इसी वजह से ‘गुजराती अस्मिता’ का टैग भी उनसे जुड़ा हुआ है. लेकिन नरेंद्र मोदी ने इस टैग को अपना खास हथियार बनाकर चुनाव दर चुनाव जिस तरह से गुजरात में प्रचार किया है, इस बात को समझा जा सकता है कि वे इसको भुनाना अच्छे से जानते हैं.
हमें इस बात को मानना होगा कि 2014 में भाजपा ने गुजरात से जो 26 सीटें जीती थी, उसमे नरेंद्र मोदी के गुजराती होने का फैक्टर काफी हद तक प्रभावी रहा ही होगा.
2017 गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान भी ‘गुजराती अस्मिता’ के तड़के ने ‘जनेऊधारी ब्राह्मण’ की दाल नहीं गलने दी.
हालिया चुनाव प्रचार के पर्यन्त गुजरात में एक बार फिर मोदी ने ‘गुजराती अस्मिता’ का छौंका लगाते हुए कांग्रेस के लिए कहा कि “नेहरू-गांधी परिवार ने सरदार पटेल और मोरारजी देसाई जैसे गुजरात के नेताओं पर निशाना साधा और अब उनके जैसे ‘चायवाले’ पर निशाना साध रहे हैं.”
खैर, गुजरात में चुनाव हो गए हैं और प्रत्याशियों की किस्मत ईवीएम मशीनों में कैद हो चुकी है. ऐसे में सवाल उठता है कि इस बार गुजरात के वोटरों के लिए ‘गुजराती अस्मिता’ का मुद्दा कहीं ज़हन में था या नहीं?
ऑल इंडिया रेडियो अहमदाबाद में सीनियर प्रोग्रामिंग एग्जीक्यूटिव मौलिन मुंशी इस विषय पर बात करते हुए कहते हैं कि “नरेंद्र मोदी जब तक प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहेंगे तब तक ‘गुजराती अस्मिता’ का मुद्दा तो रहेगा ही लेकिन पिछली बार के मुकाबले अबकी बार गुजरात के ग्रामीण इलाकों पर इसका उतना असर नहीं दिख रहा है.”
मौलिन मुंशी की इसी बात को एक कदम आगे ले जाते हुए जूनागढ़ से किसान लालजीभाई दुधातरा बताते हैं कि “गुजरात के ग्रामीण इलाकों में जिस तरह से फसल बीमा और कृषि लोन का जल्द पास नहीं होना, फ़सल का सरकारी भाव बहुत कम होना जैसे मुद्दे हैं उसके सामने ‘गुजराती अस्मिता’ के नाम पर वोट देने को कोई सोचेगा भी नहीं.”
गांधीनगर लोकसभा क्षेत्र से रिटायर्ड बैंकर प्रदीप त्रिवेदी कहते हैं “चूँकि नरेंद्र मोदी काफ़ी वर्षो तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हैं और उन्होंने गुजरात को एक वाइब्रेंट पहचान दिलाई है तो यह स्वाभाविक है कि ‘गुजराती अस्मिता’ उनके नाम के साथ जुडी रहेगी लेकिन सिर्फ ‘गुजराती अस्मिता’ के दम पर आज के समय में कोई वोट नहीं देता. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने क्योंकि उनके पास भारत को लेकर एक स्पष्ट विज़न था और लोगों ने उसे स्वीकारा है.”
वे अपनी बात में आगे जोड़ते हुए कहते हैं कि “जब देश को प्रधानमंत्री चुनना होता है तब मुद्दे अलग होते हैं और जब मुख्यमंत्री चुनना होता है तब मुद्दे अलग होते हैं. प्रधानमंत्री चुनने के वक्त राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे होते हैं एवं राष्ट्रीय पक्षों पर जनता का अधिक झुकाव होता है. लोकसभा के चुनावों में वोटर सिर्फ एक व्यक्ति को ध्यान में रख कर वोट नहीं करता, वह यह भी देखता है कि उसकी पार्टी से दूसरे उम्मीदवार कैसे हैं, वे देश को आगे ले जाने की सोच रखते हैं या नहीं, देश के विकास और सुरक्षा पर उनके क्या रुझान है, वगैरह.”
इसी सवाल पर अहमदाबाद पश्चिम लोकसभा क्षेत्र से पेडियाट्रिक डेंटिस्ट डॉ. मीत बताते हैं कि “हो सकता है कि पिछली बार एक मुद्दा ‘गुजराती अस्मिता’ का रहा हो लेकिन अब मुद्दा है कि पिछले पाँच वर्षो में जो वादे किये गए थे वे पूरे हुए है या नहीं. दूसरी तरफ मुद्दा यह भी है कि कांग्रेस ने जिस तरह से मोदी के खिलाफ साम्प्रदायिकता का मुद्दा बनाया था, ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ. सिर्फ मेडिकल सेक्टर की ही बात करें तो, मौजूदा सरकार ने पिछले पांच वर्षों में अच्छी योजनाओं को शामिल किया है. जिसके लिए मेरा वोट मोदी को जाता है. जहाँ तक ‘गुजराती अस्मिता’ की बात है तो मोदी तमिलनाडु से होते तो भी मेरा वोट उन्हीं को जाता और राहुल गाँधी की बात करूं तो वे मेरे भाई होते तो भी मैं उनको वोट नहीं देता.”
रोज़गार, नोटबंदी और जीएसटी पर सवाल करने पर डॉ. मीत ने जवाब दिया कि “हम तो टैक्स भरते थे, हमें क्या दिक्कत! जो टैक्स चोरी कर रहे थे उन्हें तो समस्या होनी ही है! और जहाँ तक रोज़गार की बात है तो पिछले वर्षों में जिस तरह अदानी, रिलायंस जिओ जैसी कंपनियों ने तरक्की की है तो यह बगैर रोज़गार के उपजे तो संभव हुआ नहीं होगा. वहीं स्टार्ट-अप और मुद्रा योजनाओं की सफलता भी इसी ओर संकेत करती हैं.”
नाम नहीं बताने की शर्त पर कलोल शहर से एक युवा ने बताया कि “साहब हमारे शहर में विकास तो है लेकिन सिर्फ अमीरों के इलाकों में. हमारे इलाकों में तो सुचारु गटर की लाइनें तक नहीं तो इन मुद्दों को देखें या फिर ‘गुजराती अस्मिता’ को!”
रिटायर्ड सरकारी ऑफिसर और हाल में घर की देखभाल कर रही अनुराधा देरासरी का कहना है कि “2014 के घोषणा पत्र वाले वादें अभी तक पूरे नहीं हुए है. महँगाई बढ़ी है. किसानों की हालत पर सोचने से भी डर लगता है. महिला सुरक्षा और महिला शिक्षा आज भी चिंता के विषय है. अब वोट तो इन मुद्दों पर देंगे ना, ‘गुजराती अस्मिता’ से देश को क्या लेना-देना! हम प्रधानमंत्री तो देश के लिए चुन रहे हैं ना! लेकिन इतना तो कहूँगी कि फ़िलहाल विपक्ष इतना कमजोर है कि सबकुछ सामने होते हुए भी मोदीजी ही एक मात्र विकल्प हैं.”
बहरहाल, भाजपा को वोट देना या कांग्रेस को, यह एक अलग चर्चा का विषय है लेकिन ‘गुजराती अस्मिता’ के नाम पर वोट देना इस बार गुजरातियों की चर्चा में ही नहीं था!
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