28 अगस्त, 2018 की सुबह से देश में सहसा अलग किस्म के ‘शौहरों’ का जन्म हुआ है. ये शौहर सरकार विरोधी हमेशा से ही थे लेकिन इनके गिरेबाँ में कहीं तो इतनी शर्म बची थी कि कल-तक ये लोग देश-विरोधी तत्वों के साथ खुलकर निकाहनामा नहीं पढ़ते थे. लेकिन माओवादी विचारधारा के कॉमरेड वरवरा राव, सुधा भारद्वाज, वरनॉन गोंज़ाल्विस, गौतम नवलखा, अरुण फेरेरा की गिरफ्तारी के बाद ये लोग एकाएक ‘माओवादियों के शौहर’ बन गए हैं.
लोकशाही प्रणाली के तहत इन लोगों को विपक्षी कहा जा सकता था लेकिन हम उन्हें विपक्षी न कहकर ‘शौहर’ शब्द से सम्बोधित कर रहे हैं. इसकी वजह है, लोकशाही में विपक्षी भी देशहित में फैसले लेते हैं. यदि पक्ष कहीं भटक गया हो तो उन्हें लाइन पर लाने की ज़िम्मेदारी विपक्ष की होती है. देश को आगे ले जाने में पक्ष और विपक्ष दोनों का एक समां योगदान होता है. लेकिन यदि विपक्ष अपनी मर्यादाओं को भूल जाएं और सिर्फ राजनैतिक रोटियाँ सेंकने के लिए देश विरोधी तत्वों की पैरवी करने लगे तो उसे आप उन तत्वों का ‘शौहर’ नहीं तो और क्या कहेंगे? आज विपक्ष माओवादियों की पैरवी कर ‘सुहाग-रात’ मना रहा है.
चूँकि वर्तमान में कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और 66 सांसदों के गठबंधन यूपीए का नेतृत्व भी उनके हाथों में है इस वजह से कांग्रेस की यह ज़िम्मेदारी बनती थी कि ‘माओवादी दिमाग़’ की गिरफ़्तारियों का समर्थन किया जाए, पुलिस को अपना काम करने दिया जाए, कोर्ट को भी अपना काम करने दिया जाए और देशहित में राजनीति को दूर रखा जाये. परन्तु कांग्रेस ने यहाँ भी राजनैतिक पापड़ बेलना शुरू कर दिए और माओवादियों की राष्ट्र-विरोधी हरकतों पर ‘कबूल है’ कह दिया.
भूल गए कि ‘यूपीए 1’ में उन्होंने ही नक्सलियों-माओवादियों के खिलाफ ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ की शुरुआत की थी. इसी ऑपरेशन के बाद कुछ नक्सलियों ने जंगल छोड़ कर शहरी इलाकों में अपने पैर पसारने शुरू किये थे. इस बात की भनक लगते ही चिदंबरम के गृहमंत्रालय ने एक विशेष तरह की छानबीन हाथ में ली थी जिसमे ‘अर्बन नक्सल्स’ को ढूंढा जाना शुरू हुआ था.
‘यूपीए 2’ में प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि “नक्सलवादी हिंसा भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा है.” इस बयान के कुछ दिन पहले चिदंबरम ने तो यहाँ तक कह दिया था कि “माओवादियों से लड़ने के लिए एयर फ़ोर्स का इस्तेमाल किया जा सकता है.”
इसके बाद मनमोहन सरकार में सुशील कुमार शिंदे के नेतृत्व वाले गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहा था कि “शहरी केंद्रों में अकादमिक जगत से जुड़े कुछ लोग और ऐक्टिविस्ट ह्यूमन राइट्स की आड़ में ऐसे संगठनों को संचालित कर रहे हैं, जिनका लिंक माओवादियों से है.” यही नहीं सरकार ने इन लोगों को जंगलों में सक्रिय माओवादी संगठन ‘पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी’ से भी खतरनाक बताया था.
अब ताज्जुब की बात है कि कल तक नक्सलियों-माओवादियों का विरोध करने वाली कांग्रेस आज उनकी ‘शौहर’ कैसे बन गई है! क्या यहाँ भी वे ‘गुड नक्सलवाद बनाम बेड नक्सलवाद’ की थ्योरी को जन्म दे रहें हैं!
ईमेल और चिट्ठियों के आधार पर गिरफ्तार किये गए ‘माओवादी दिमागों’ का प्लान सीधा-सीधा राजीव गाँधी की हत्या जैसा कुछ करना था जिससे की मोदी-राज को ख़त्म किया जा सके.
8 जून को देशभर की मीडिया में एक चिट्ठी घूमती हुई थी जिसमें लिखा था,
“हम राजीव गांधी जैसी घटना के बारे में सोच रहे हैं. ये आत्महत्या जैसा सुनाई देता है. और बहुत संभावना है कि हम नाकाम रहें. लेकिन हमें लगता है कि पार्टी पोलित ब्यूरो सेंट्रल कमेटी को इस पर विचार करना चाहिए. उनका रोड शो टारगेट करना प्रभावी रणनीति हो सकता है. हम सोचते हैं कि पार्टी का बचा रहना किसी भी शहादत से बड़ा है.”
इन चिट्ठियों की भाषा और शब्दों पढ़कर यह तो क्लियर हो जाता है कि आतंकवाद से लिप्त यह सोच सरकार की नीतियों की आलोचना मात्र तो नहीं थी कि सरकार ने इसे पढ़ा और बर्दाश्त नहीं कर सकी तो इन लोगो को गिरफ्तार कर लिया गया!
बावजूद, देश के प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने वाले ‘अर्बन माओवादियों’ को राहुल गाँधी ‘एक्टिविस्ट’ कह कर बचाव में उतरे हैं.
आलम कुछ यूँ है कि पूरी की पूरी कांग्रेस ही इन ‘अर्बन नक्सलियों’ की गिरफ्तारियों की तुलना ‘एंटी-डेमोक्रेटिक एक्शन’ से कर रही है.
The draconian arrests of Sudha Bharadwaj, Arun Fereira and Vernon Gonsalves & other human rights activists further substantiate the anti-democratic actions of the ruling govt. PM Modi’s ‘New India’ is nothing but a dictatorship wrapped in expensive advertising. #BhimaKoregaon
— Congress (@INCIndia) August 28, 2018
लेकिन कोंग्रेसियों को भूलना नहीं चाहिए कि गिरफ्तार किये गए 5 लोगों में वरनॉन गोंज़ाल्विस और अरुण फेरेरा को तो कांग्रेसी शासन के दौरान भी गिरफ्तार किया गया था. वरनॉन गोंज़ाल्विस पर नक्सलियों से सहानुभूति रखना, भारत के खिलाफ छापामार युद्ध जैसे प्रमुख देश-विरोधी आरोप थे और अरुण फेरेरा पर भीमराम आंबेडकर ने जहाँ बौद्ध धर्म अपनाया था उस ‘दीक्षाभूमि कॉम्प्लैक्स’ को उड़ाने के इल्जाम थे. फेरेरा पर गैरकानूनी तरीके से हथियार रखने और पुलिस पर गोली चलाने का आरोप भी था.
लेकिन चूँकि उस दौरान कांग्रेस का शासन था इस वजह से गिरफ्तार किये गए लोग माओवादी थे और आज भाजपा का शासन है इसलिए यही लोग ‘शांतिदूत’ बन गए लगता हैं!
महाराष्ट्र के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून-व्यवस्था) परम बीर सिंह के मुताबिक “जितने सबूतों के आधार पर जी.एन साईबाबा को सजा हो चुकी है, इन पांचों के विरुद्ध उससे ज्यादा सुबूत हैं.”
आपको यहाँ बता दूँ कि 2001 से लेकर अब तक माओवादियों ने करीब 6000 नागरिकों और 2000 सुरक्षार्मियों की हत्याएं की हैं. साथ ही पुलिस एवं केंद्रीय अर्धसैनिक बलों से 3000 से अधिक हथियारों की लूट को अंजाम दिया है.
इतना सबकुछ सामने होते हुए भी यदि इस मुद्दे पर भी राहुल गाँधी की कांग्रेस मोदी सरकार का विरोध करना चाहती है तो हम कह सकते हैं “विनाश काले विपरीत बुद्धि”
मैं सोचता हूँ जिस पार्टी ने नक्सलियों-माओवादीओं का सबसे बड़ा दंश झेला है, आज उस पार्टी ने खुद को राजनीति की किस चौखट पर पटक दिया कि वे अपने ही कार्यकर्ताओं की लाशों पर चलकर नक्सली समर्थकों को ‘शांतिदूत’ बता रहे हैं.
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