संस्कृत से नाक-भौं सिकोड़ने वाले हम भारतियों के लिए हालिया दिनों में फ्रेंच, हिब्रु, जर्मन जैसी कई दूसरी भाषा सीखने का चस्का लगा है, लेकिन विदेशों में संस्कृत को सीखने का ट्रेंड ख़ूब बढ़ रहा है जो हमारे उलट साबित हो रहा है. लाये है एक बढ़िया इंटरव्यू, आपको जगा देगा, पढ़िए.
लंकापति रावण को युद्ध में परास्त कर, प्रभु श्री राम ने विभीषण को लंका की बागडोर सौंप दी और अयोध्या प्रस्थान करना चाहा. लेकिन तब तक अनुज लक्ष्मण को लंका की आबो-हवा रमणीय और मनोरम लगने लगी. इसलिए लक्ष्मण ने राम से कुछ और दिवस लंका में ही रुकने के लिए कहा. तब राम ने कहा, “जननी जन्मभूमुश्च स्वर्गादपि गरीयसी.” यानि जननी और जन्मभूमि दोनों का ही स्थान स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है !
भारत जैसा देश जहाँ अधिकतर पौराणिक शास्त्रों के प्रणयन की भाषा संस्कृत रही है. वह भाषा जिसके शब्दकोश से भारत की अधिकांश क्षेत्रीय भाषाओं के शब्द निकले हों. जिसके माध्यम से भारत की उत्कृष्ट मनीषा, प्रतिभा, चिंतन, मनन, विवेक, रचनात्मकता, वैज्ञानिकता और सृजनात्मक परम्परा की नींव रखी गई हो! भारतीय समाज के लिए अपार निर्माण की क्षमताओं के बावजूद चूँकि राजनैतिक रोटियाँ सेंकने के हिसाब से यह भाषा नेताओं के पैमानों पर खरी नहीं उतरती इसलिए स्वर्गादपि ‘माँ संस्कृत’ की वर्तमान स्थिति से तो हम सब अच्छे से वाकिफ ही है.
ऐसा नहीं है कि संस्कृत ही इस ब्रह्मांड की सबसे प्राचीन भाषा है. हमारे देश में ही बोली जाने वाली तमिल भाषा संस्कृत के समान्तर काल की ही भाषा है. हिब्रू, ग्रीक, लेटिन, चायनीज़ भी उतनी ही पुरानी भाषाएँ हैं लेकिन इन सब भाषाओं का कोई रिकॉर्ड नहीं है, संस्कृत का रिकॉर्ड है और वैदिक संस्कृत, आदिम भाषाओं की उत्पत्ति के उद्गम के सबसे समीप है. इसका तर्क है कि आदिम भाषाओं का जो स्वभाव है, जो प्रवत्ति है, वह वैदिक संस्कृत में बहुत ही योग्य तरीके से आज भी जीवित है. शब्दों का बनना, धातुओं का स्वरूप, शब्दों की संरचना, शब्दों का वास्तविक रूप, यह सब अन्य भाषाओं में नहीं मिलेगा, संस्कृत में उपलब्ध है.
संस्कृत व्याकरण में क्रियाओं के मूल रूप को धातु कहा जाता है और धातु ही संस्कृत शब्दों के निर्माण के लिए मूल तत्त्व हैं. संस्कृत भाषा के सबसे बड़े वैयाकरण पाणिनि के हिसाब से इन धातुओं की संख्या लगभग 2000 के आसपास है. लेकिन सतयुग में बोली जाने वाली संस्कृत जिसे ‘देवभाषा’ के नाम से जाना जाता है उसमे 33,000 से भी ज्यादा धातुएं थीं. सतयुग से धीरे-धीरे विलुप्त होकर 500 ई. पू, तक महर्षि पाणिनि के सामने जितनी धातुओं का चलन था उसका उन्होंने संग्रह व् आकलन किया और अपने ग्रंथ द्वारा सबके सामने रखा.
आज विश्व भर में सबसे अधिक बोली जाने वाली अंग्रेज़ी भाषा के बारे में प्रसिद्ध जर्मन भारतविद् मैक्स मूलर ने अपने साइंस ऑफ थाट में कहा था कि, “यह मेरा विश्वास है कि 2,50,000 शब्द सम्मिलित माने जाने वाले अंग्रेज़ी शब्दकोश की सम्पूर्ण सम्पदा के स्पष्टीकरण हेतु वांछित धातुओं की संख्या, उचित सीमाओं में न्यूनीकृत पाणिनीय धातुओं से भी कम है.”
कुछ सप्ताह पहले मेरी मुलाकात, अहमदाबाद की इंडस यूनिवर्सिटी के इंडिक टॉक में हिस्सा लेने आए हालिया दौर में संस्कृत के मझे हुए विद्वानों में से एक डॉ. सम्पदानन्द मिश्र से हुई. “The Wonder that is Sanskrit” पर दिए गए उनके व्याख्यान के बाद मानो संस्कृत को और करीब से जानने की, इसकी खूबसूरती को समझने की जिज्ञासा ने मेरे भीतर ही भीतर एक तीव्र जोर पकड़ा.

डॉ. सम्पदानन्द मिश्र संस्कृत भाषा पर लिखी गई कईं पुस्तकों के लेखक और संपादक है. फ़िलहाल वे पांडिचेरी में Sri Aurobindo Foundation for Indian Culture के डायरेक्टर हैं. वे नियमित रूप से संस्कृत, मंत्र, योग और भगवद गीता पर छात्रों और शिक्षकों के लिए कार्यशालाएँ, प्रशिक्षण कार्यक्रम और वार्ताएं आयोजित करते हैं. वे श्री अरबिंदो सोसाइटी द्वारा संचालित संस्कृत की अनेकों परियोजनाओं में शामिल हैं, जिसमें 24 घंटे का संस्कृत भाषा रेडियो स्टेशन भी शामिल है जिसे ‘दिव्यवानी संस्कृत रेडियो’ के नाम से जाना जाता है. वे संस्कृत-बालसाहित्य-परिषद् के संस्थापक भी हैं जो संस्कृत में बच्चों के साहित्य को बनाने, उनका मूल्यांकन करने और प्रसार करने पर केंद्रित है.
‘माँ संस्कृत’ में कार्यों और सेवाओं को लेकर डॉ. सम्पदानन्द मिश्र को 2012 में राष्ट्रपति द्वारा महर्षि बादरायण व्यास अवार्ड से सम्मानित किया गया था.
यदि संस्कृत भाषा के विशाल भंडार को हम परखें तो हम जानेंगे कि, जितने भी ग्रन्ध हैं इसमें, उसमे से केवल 12 से 15 प्रतिशत ग्रन्थ धर्म-परख है, शेष सरे ग्रन्थ विज्ञान, संगीत और व्याकरण-परख ग्रंथ है. साथ ही जो 12 से 15 प्रतिशत ग्रन्थ धर्म-परख है उसमे भी कोई धार्मिक संकीर्णता की दृष्टि नहीं है, उसमे एक विशाल दृष्टि है | – डॉ. सम्पदानन्द मिश्र
इतनी बड़ी हस्ती होते हुए भी, डॉ. सम्पदानन्द मिश्रजी ने बड़ी शालीनता से अपना कीमती समय दिया और मेरे अंदर जगे कुछ प्रश्नों का निवारण किया. यहाँ प्रस्तुत है हमारी बातचीत का ब्यौरा:
आपने अपने व्याख्यान में इस बात का जिक्र किया कि संस्कृत दुनिया की सबसे तर्कसंगत और सशक्त भाषा है. यह भाषा बोलने मात्र तक ही सीमित नहीं है, यह आत्म-जागरूकता के लिए भी जरुरी है. तो मैं जानना चाहूंगा की एक भाषा(संस्कृत) आत्म-जागरूकता के लिए कैसे उपयोगी हो सकती है?
देखिये, संस्कृत एक ऐसी भाषा है जो उच्च-चेतना से आई हुई भाषा है. जब हम इस भाषा का सचेतन तरीके से अपने जीवन में प्रयोग करते हैं तब यह भाषा हमें उस चेतना के साथ जोड़ देती है. जिस आत्म-सचेतना की बात हम कर रहें हैं, तो उसके बारे में हम एक उदाहरण ले लें. जैसे हम जब कभी बीमार होते हैं तो हम संस्कृत में कहतें हैं – वह अस्वस्थ है. आप इस अस्वस्थ शब्द को ही देख लीजिये, इसका मतलब है, जो अपने में स्थित नहीं हैं, जिसके अंदर स्थिरता नहीं है, जिसके अंदर समभाव नहीं हैं, वही अस्वस्थ है. लेकिन जो नैतिक है, जिसके अंदर समभाव है, समरसता है वह कभी बीमार नहीं पड़ता. बिमारियों का मूल कारण ही तो अनैतिकता है. तो एक शब्द ‘स्वस्थ’ हमें बताता है कि यदि हमें अच्छा रहना है तो स्वस्थ बनो, स्थिर बनो. स्थिरता को अपनी चेतना में समां लेना है. जहाँ अस्थिरता है वहां बीमारी है. तो इस प्रकार जब हम संस्कृत में शब्दों का प्रयोग करतें है तब यही शब्द हमारे अंदर सचेतता को पैदा करती है, हमें यह आभास करवाती है कि हमें कैसे रहना है, कैसे बोलना है, कैसे बैठना है, कैसे उठना है, हमारा सभी चीजों के साथ जो सम्बन्ध है वह कैसा होना चाहिए. मैंने अपने पिछले सत्र में बताया कि कोई वस्तु है जिसके इतने सारे नाम हैं वह अपने अपने धर्म हो बताता है. इस कारण हम उस वस्तु के साथ एक अलग सम्बन्ध के साथ जुड़ जाते हैं, यही तो आत्म-सचेतना है, जागरूकता है.
आपने धर्म और संस्कृत द्वारा आत्म-सचेतना और जागरूकता की बात की. तो ऐसे में ये कितना सही है कि संस्कृत भाषा को हिन्दू धर्म मात्र के साथ जोड़ लिया जाता है!
यह हमारी सबसे बड़ी गलती है और जब हम संस्कृत भाषा के बारे में बात करते हैं तो कुछ सवाल सबसे ज्यादा उठतें हैं. पहला सवाल हैं, क्या संस्कृत बहुत कठिन भाषा है? इतनी कठिन भाषा जिसको पढ़ना, लिखना, बोलना बहुत मुश्किल है उसको हम क्यों अपनाएं? दूसरा सवाल है, संस्कृत भाषा हिन्दू भाषा है, यह एक धर्म से जुडी हुई भाषा है. उसको हम क्यों अपनाएं?
तो मैं, इसपर कहना चाहूँगा कि भाषा कभी किसी एक धर्म की नहीं हो सकती. एक धर्म जिसके कुछ तत्वों को इस भाषा में कहा गया है इसका मतलब यह नहीं कि वह भाषा उस धर्म मात्र की है. संस्कृत तो एक वैश्विक भाषा है. जो विश्वव्यापी एक धर्म का सन्देश देती है. अगर संस्कृत में भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान के बारे में लिखा हुआ है तो क्या हम कह सकते है कि यह हिन्दू भौतिक विज्ञान है हिन्दू रसायन विज्ञान है.
यदि संस्कृत भाषा के विशाल भंडार को हम परखें तो हम जानेंगे कि, जितने भी ग्रन्ध हैं इसमें, उसमे से केवल 12 से 15 प्रतिशत ग्रन्थ धर्म-परख है, शेष सरे ग्रन्थ विज्ञान, संगीत और व्याकरण-परख ग्रंथ है. साथ ही जो 12 से 15 प्रतिशत ग्रन्थ धर्म-परख है उसमे भी कोई धार्मिक संकीर्णता की दृष्टि नहीं है, उसमे एक विशाल दृष्टि है. ये ग्रन्ध हमको बतातें है कि, ‘विश्वम भवति एक नीड-ब’ यानि समग्र विश्व एक ही नींव में बांध जाता है. ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ कि सब सुखी रहें. मैं अकेला नहीं, मेरा देश अकेला नहीं, समग्र विश्व सुखी रहें. तो समूचे विश्व के कल्याण के लिए इस भाषा में सन्देश है उसमे किस एक धर्म या परंपरा की संकीर्ण दृष्टि नहीं है. फिर भी संस्कृत को एक भाषा मात्र के साथ जोड़ के हर प्रकार के खेल खेलना और राजनीति में इसको लाना यह एक बहुत बड़ी गलती है.
आज देश के जीवंत मुद्दों में ‘freedom’ का अत्यधिक बोल-बाला है. ‘Freedom of Speech’, ‘Freedom of Choice’, ‘Freedom of Expression’ वगैरह. ऐसे में एक भाषा(संस्कृत) जिसमें सबसे अधिक freedom है अपने शब्दों को खुद से बनाने की, वाक्य में शब्दों को अपने तरीके से पिरोने की. फिर भी ऐसे कौन से कारण रहें होंगे कि हमारी शिक्षा प्रणाली में आजतक संस्कृत को अनिवार्य तरीके से जोड़ा नहीं गया?
यह तो बहुत बड़े दुःख की बात है. जिस भाषा को अनिवार्य तौर पर कहीं और हो न हो पूरे भारत वर्ष के सभी स्कूलों में पढ़ाना चाहिए था. लेकिन खेद की बात है कि हमारे देश की जो शिक्षा व्यवस्था है, जो नीति निर्माता है, जो शिक्षा पद्धति है उसमे इस भाषा को समाया नहीं गया है और इसी कारण हमारे देश की जो प्रांतीय भाषाएँ है वे भी अब विलुप्त हो रही हैं. अगर संस्कृत को हमारी शिक्षा प्रणाली में शामिल किया गया होता तो यें भाषाएँ नष्ट न होती. आज आप हिंदी के स्तर को देख लीजिये, मराठी के स्तर को देख लीजिये, तमिल के स्तर, ओरिया के स्तर और हरेक प्रांतीय भाषा के स्तर को देख लीजिये, बहुत दयनीय हैं क्योंकि संस्कृत को अपने साथ नहीं जोड़ा गया है. यदि संस्कृत भी साथ रहती तो यह सारी भाषाएँ भी समृद्ध होतीं.
तो हमने न प्रांतीय भाषाओं को प्रधान्य दिया ना ही संस्कृत को. अंग्रेजी के हम इस कदर गुलाम बन गए हैं कि हम उसके बगैर साँस भी नहीं ले सकते हैं. यह हमारे देश के राजनीति के कारण हुआ है और जो लोग शिक्षा व्यवस्था को बना रहे हैं उनको यदि यह समझ में आए कि संस्कृत की प्रमुखता क्या है, उसको क्यों साथ में रखना चाहिए, तो उसी में देश का उज्जवल भविष्य है. यदि संस्कृत नहीं है तो देश का भविष्य भी उज्जवल नहीं है.
वर्तमान सरकार में डॉ हर्षवर्धन सिंह, सुषमा स्वराज वे मंत्री हैं जिन्होंने अपने मंत्रीपद की शपथ संस्कृत में ली थी. यह सरकार देश को एक सूत्र में बांधने के लिए काम कर रही है जिसके लिए ‘एक देश एक टैक्स’ जैसे कानून बनाएं जा रहे हैं. ऐसे में भाषा को लेकर कौनसा रोल-मॉडल अपनाया जा सकता है कि ‘एक देश एक भाषा’ का सपना संभव हो सके?
इसके लिए मेरा सुझाव है कि पहले प्रान्त की मात्र भाषा को प्राधान्य दिया जाए. क्योंकि संस्कृत के 70 से 80% शब्द देश की प्रत्येक प्रांतीय भाषाओं में उपयोग में आते हैं. यदि हमारे देश में क्षेत्रीय भाषा को पहली से बारहवीं कक्षा तक अनिवार्य तौर पर लागू करते हुए क्षेत्रीय भाषा और संस्कृत के बीच 60-40 का अनुपात रखकर दोनों भाषाओं को साथ जोड़ा जाए तो इसमें दोनों भाषाओं की समृद्धि संभव है और यह बहुत अच्छा कदम हो सकता है. यह मेरा सुझाव यदि प्रत्येक राज्य सरकार ध्यान में रखें जहाँ क्षेत्रीय भाषा के विषय की परीक्षा में 40 अंक संस्कृत के रखें जाए और शेष 60 क्षेत्रीय भाषा के लिए तो इससे 70 से 80% शब्द जो दोनों भाषाओं में एक सामान है वे अच्छे से सीखे जा सकते है, उनको समझा जा सकता है और फिर नए शब्दों को निर्माण भी संभव है और इसमें दोनों भाषाओं का विकास संभव है.
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