एक पुराना किस्सा है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से मई, 1935 में एक ईसाई मिशनरी की नर्स ने पूछा, ‘क्या आप ईसाई मिशनरियों के भारत आने पर रोक लगाने के पक्ष में हैं?’ जवाब में गांधी ने कहा, ‘अगर भारत की सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो मिशनरियों द्वारा किए जा रहे मतांतरण का सारा धंधा ही बंद करा दूं. मिशनरियों के प्रवेश से हिंदू परिवारों की वेशभूषा, रीति-रिवाज एवं खान-पान में अंतर आ गया है.’ गांधी के इस कथन के 8 दशक बाद दिल्ली के कैथोलिक आर्क बिशप अनिल काउटो ने पादरियों के लिए एक पत्र जारी किया है. इस पत्र में अगले साल केंद्र में बनने वाली सरकार के लिए ‘दुआ’ मांगने का आह्वान किया गया है. बिशप ने भारत की मौजूदा राजनीतिक स्थिति को भी ‘अशांत’ करार दिया है.
धर्म का मकसद जब राजनीति करना हो जाता है तब उसके ऐसे ही दुष्परिणाम सामने आते हैं. आस्था के भंवर में फंसाकर व्यक्ति और समाज को किसी राजनीतिक पार्टी के विरुद्ध उकसाना न केवल ईश्वरीय अपराध है, बल्कि स्वार्थ के वशीभूत होकर खुद का पतित होना भी है. आर्क बिशप ने इसी तरह का काम किया है. विद्वेष से भरे उनके पक्षपातपूर्ण पत्र ने देश की राजनीतिक ही नहीं, बल्कि धार्मिक समरसता को बांटने का काम किया है. क्या मठ-मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघर छद्म और कपटपूर्ण राजनीति करने के लिए बने हैं? क्या बिशप भाजपा विरोध की राजनीति चर्च से चलाना चाहते हैं? यदि उनका आशय यह है तो उन्हें सार्वजनिक तौर पर यह बताना चाहिए कि केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद ईसाइयों पर अत्याचार के कितने मामले बढ़े? आंकड़ों के साथ उन्हें अपनी बात रखनी चाहिए कि भाजपा ने कैसे देश को ‘अशांत’ कर रखा है? चार साल की भाजपानीत सरकार में यदि छुटपुट घटनाओं को छोड़ दें तो कहीं भी बाइबल या चर्च के अपमान की शायद ही कोई घटना घटी हो. बिशप के पत्र के निहितार्थ उनका यह मानसिक दुख जरूर हो सकता है कि मिशनरियों को भोले-भाले हिंदुओं को मतांतरित करने का अवसर न मिल पा रहा हो, जिसकी खीझ में उन्होंने यह पत्र लिखा हो.
यह कटु सत्य है कि अंग्रेजों के आने से लेकर आज तक देश का शायद ही कोई राज्य बचा हो, जहां हिंदुओं के धर्म परिवर्तन का घिनौना खेल मिशनरियों द्वारा न खेला गया हो. सनातन ईश्वरीय आस्था को हीन दिखाकर भय या प्रलोभन से सामान्य बुद्धि वाले हिंदुओं को स्वधर्म से च्युत कर ईसाई बनाने के तीन तरीके मिशनरियों द्वारा अपनाए गए. पहला तरीका मुसलमान आक्रांताओं की तरह तलवार के जोर पर जबरदस्ती है. प्राकृतिक या महामारी जैसी आपदाओं में फंसे निराश्रित मजबूर लोग ईसाइयों के आश्रमों में भर्ती होते हैं, फिर वे ‘सेवा’ के बहाने धर्मांतरित कर दिए जाते हैं, यह तरीका दूसरा है. तीसरा तरीका बाइबिल की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार है, जिसमें ईश्वरीय चमत्कार की भूलभुलैया में भ्रमित कर लोगों को ईसाई बनाना है.

ईसाइयों द्वारा धर्मांतरण करने का काम नया नहीं बल्कि सदियों पुराना है. 1870 ईस्वी में संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोश के लेखक सर मोनियर विलियम्स ने रानी विक्टोरिया को भेजे पत्र में लिखा था कि ‘भारत में ईसाईयत के प्रचार के लिए संस्कृत का ज्ञान होना जरूरी है. इस ज्ञान को पाने के लिए संस्कृत का अंग्रेजी शब्दकोष उपयोगी होगा.’ ठीक ऐसे ही फादर कामिल बुल्के ने विकृतिपूर्ण ‘राम कथा’ लिखकर वेटिकन को सूचित किया था कि भारतीयों को ईसाई तब तक नहीं बनाया जा सकता जब तक उनके मन-मस्तिष्क से राम चरित को न निकाला जाए. बुल्के की पुस्तक के जवाब में स्वामी करपात्री ने ‘रामायण मीमांसा’ लिखकर राम के प्रति की गई उनकी अश्लील टिप्पणियों का जवाब दिया. बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ईसाइयों द्वारा कराए जा रहे धर्मांतरण की हकीकत से भलीभांति परिचित थे इसीलिए अपने धर्म बदलने की बात पर उन्होंने ईसाई मत ग्रहण करने के सुझाव को सिरे से खारिज कर दिया.

हमारे यहां रामायण या गीता जैसी दूसरी धार्मिक तथा सदाचारपरक पुस्तकों के प्रचार का कोई सुनियोजित प्रबंध नहीं है, जबकि ये ग्रंथ बिना किसी धर्म की आलोचना किए उत्तम शिक्षा से भरे हैं. वहीं, एक शोध के अनुसार ईसाइयों ने उनकी पवित्र धार्मिक पुस्तक बाइबल के प्रचार के लिए गत एक दशक में सौ करोड़ रुपए खर्च किए हैं. पिछले दो सालों में बाइबल की 66 लाख प्रतियां मुफ्त बांटी गई हैं. सब जानते हैं कि भारत बहुत संपन्न देश नहीं है. ऐसे में बिस्कुट, कंबल और बाइबल बांटकर लोगों को प्रलोभन से ईसाई बनाया गया है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि देश के उत्तर-पूूर्वी और दक्षिणी राज्यों में ईसाई मिशनरियों ने कितने व्यापक स्तर पर धर्मांतरण किया है. इन राज्यों के कई शहरों, कस्बों और गांवों में ईसाई बहुसंख्यक हैं. इससे यह सिद्ध होता है कि ईसाई मिशनरियों ने कथित सेवा के नाम पर धर्मांतरण का खुला खेल खेला है. उत्तर-पूर्वी राज्यों की सामाजिक संरचना में हुआ यह बदलाव कई मायनों में खतरनाक है. संभवत: विनायक दामोदर सावरकर ने इन खतरों को काफी पहले भांप लिया था. उन्होंने धर्मांतरण को राष्ट्रांतरण कहा. उनका मानना था कि यदि व्यक्ति धर्मांतरण करके ईसाई या मुसलमान बन जाता है तो फिर उसकी आस्था भारत में न रहकर उन देशों के तीर्थ स्थलों में हो जाती है जहां के धर्म में वह आस्था रखता है, इसलिए धर्मांतरण का मतलब राष्ट्रांतरण है. सावरकर की यह बात उन धार्मिक सिद्धांतों से मेल खाती है, जिनमें परमात्मा के लिए तीर्थयात्रा की जाती है. भारत में जन्में और पले-बढ़े हिंदू, जैन, बौद्ध और सिखों को तीर्थयात्राओं के लिए भारत से बाहर कहीं नहीं जाना पड़ता. यदि वे अपनी धर्म यात्रा के लिए पड़ोसी देशों में जाते भी हैं तो वे सब अविभाजित भारत के हिस्से हैं. इसलिए उनकी पारंपरिक एवं धार्मिक आस्था तथा श्रद्धा भारत से गहरी जुड़ी है. वहीं, वेटिकन सिटी से चलने वाले आर्क बिशप भारत में सदियों से धर्मांतरण का खेल चलाकर भी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. उनका यह कदम भारतीय चुनाव प्रक्रिया में वेटिकन का हस्तक्षेप है, क्योंकि आर्क बिशप की नियुक्ति सीधे पोप करता है. इसलिए बिशप की निष्ठा पोप के प्रति होती है न कि भारत सरकार के प्रति. जाहिर तौर पर यह पत्र स्वाभाविक न होकर सुनियोजित साजिश का परिणाम है. इस साजिश का स्रोत कहां है और इसका मकसद क्या है, यह जगजाहिर है.

हिंदू धर्मांतरण का कभी समर्थन नहीं करता, क्योंकि यहां इसके लिए कोई धार्मिक विधि मौजूद नहीं है. दरअसल हिंदुओं ने कभी भी दूसरे धर्मों को अपने प्रतिद्वंद्वी के रूप में नहीं देखा. यहां तो वेदों को नकारने वाले चार्वाक, जैन और बौद्ध दर्शन को हिंदुओं ने अपनी परंपरा का ही अभिन्न हिस्सा माना. यह आश्चर्यजनक किंतु सत्य है कि हिंदू धर्म में मतैक्य को उतना महत्त्व नहीं है, जितना मतवैविध्य को है. ईश्वर को नहीं मानने वाले भी उतने ही हिंदू हैं जितने ईश्वर की सत्ता को मानने वाले. नास्तिक दर्शन के प्रवर्तक चार्वाक तक को आस्तिक दार्शनिकों ने ‘महर्षि’ संबोधन प्रदान किया. ठीक ऐसे ही ईश्वर को सगुण और निर्गुण रूप में स्वीकारने वाले संत-कवियों में कहीं कोई भेद नहीं है. क्या इस प्रकार का सनातन आध्यात्मिक लोकतंत्र कहीं और भी मौजूद है?
धर्मांतरण से व्यक्ति का धर्म ही नहीं बदलता है वह शाश्वत आध्यात्मिक लोकतंत्र से वंचित हो जाता है. उसके लिए वहां मतवैविध्य की कोई जगह नहीं है, इस नाते उसे मजबूरन एक ‘किताब’ पर ही मतैक्य होना पड़ता है. ‘वादे वादे जायते तत्त्वबोध:’ अर्थात निरंतर तर्क करने पर तत्त्व का बोध यानी निष्कर्ष मिलता है. पर वहां न वाद, न विवाद और न ही कोई संवाद। सिर्फ धर्मांतरण के दलदल में फंसाकर पूरे विश्व पर वेटिकन का धार्मिक अधिकार स्थापित करना. ऐसे में आर्क बिशप का पत्र षड्यंत्र है, जो देश के आंतरिक सौहार्द को धार्मिक धरातल पर बांटकर इसके राजनीतिक इस्तेमाल की जमीन तैयार कर रहा है.
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