आज़ादी का वीर सिपाही कभी न हिम्मत हारा
फिर डांडी पर जा कर अपने हाथों नमक बनाया,
सारे देश को सत्याग्रह का सुन्दर सबक पढाया.
भारतवासी जपते थे फिर गांधी नाम की माला,
चालीस करोड़ दिलों पे छाया एक लंगोटी वाला.

बापू की जीवनी को समर्पित राजेंद्र कृष्ण लिखित ये पंक्तियाँ हमें उनके जीवन का सार समझाने की कोशिश करती हैं!

गांधीजी के विषय में मेरे एक मित्र का कहना था कि ‘उस ज़माने में संचार के इतने परिपक्व माध्यम नहीं थे फिर भी गांधीजी जहाँ जाते थे एक बड़ा हुजूम उनके पीछे-पीछे चलने लगता था तो कुछ तो बात थी उनमे!”

सार्वजनिक जानकारियों में हम बापू को एक सत्याग्रही, अहिंसावादी, स्वछता-प्रेमी, क्रांतिकारी, लेख़क, वक्ता, आज़ादी के नायक, एवं मसीहा के तौर पर जानते होंगे लेकिन इन पहलुओं से गांधीजी के जीवन का एक कोना ही हम तक पहुँचता है.

गांधीजी के सबसे बड़े बेटे हरिलाल की गांधीजी से एक न बनती थी इसलिए उन्होंने घर छोड़ दिया था. एक बार जब हरिलाल को पता चला कि कटनी से निकलने वाली ट्रैन में गांधीजी और कस्तूर-बा भी हैं तो वे वहाँ पहुँच गए. वहाँ जब हर कोई ‘महात्मा गांधी की जय’ के नारे लगा रहा था तब हरिलाल ने अचानक ‘कस्तूर-बा की जय’ के नारे लगाने शुरू कर दिए.

गांधीजी ने जब ‘कस्तूर-बा की जय’ के नारों को सुना तो वे पहचान गए कि वह व्यक्ति हरिलाल हैं. उन्होंने हरिलाल को ट्रैन में बुलाया और थोड़ी देर बाद जब ट्रैन चलने लगी तो हरिलाल ने कुछ संतरे कस्तूर-बा को दिए और कहा “ये आप खाना, इसको(गांधीजी को) मत देना.”

मतलब साफ़ है! हम जिस गांधी को जानते हैं वे हमारे ‘राष्ट्रपिता’ तो हैं लेकिन दूसरी तरफ़ शायद उनके सगे बेटे ने एक ‘पिता’ के तौर पर उन्हें सम्मान देना बंद कर दिया था.

गांधीजी के व्यक्तित्व एवं उनके विचारों को लेकर उस समय भी दो धड़े विराजमान थे, आज भी वही हालत हैं और शायद आने वाले लम्बे समय तक ये दोनों धड़े अपने-अपने तर्कों से एक-दूसरे के साथ दंगल करते रहेंगे.

विरोधियों की बात करूँ तो उनका कहना है कि भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस जैसे क्रांतिकारियों के साथ गांधीजी ने ठीक नहीं किया एवं एक धर्म-विशेष के साथ उन्होंने ज़रूरत से ज़्यादा सहानुभूति रखी! इसके इतर गांधीजी के समर्थक उनकी तार्किक, मृदुभाषी, शांत एवं अहिंसावादी वृत्ति की पूजा भी करते हैं.

मैं नहीं जानता कि लोगो का गांधीजी के विषय में अध्ययन कितना गहरा एवं प्रमाणित है लेकिन इन दो धड़ों के बीच गांधीजी के जीवन की एक तस्वीर ऐसी भी है जो हर समय दोनों धड़ों को सोचने पर मजबूर कर सकती है.

जी, आज मैं उसी गांधी को याद करना चाहता हूँ जिनके जीवन का एक पहलू दार्शनिक भी हैं! उनकी दार्शनिकता में अनुभवों एवं प्रयोगों का निचोड़ है! यदि आज की पीढ़ी उन विचारों का दर्शन कर, समझ सके तो व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय तौर पर बहुत सी समस्याओं से मुक्ति मिल सकती है!

आज के हमारे आधुनिक जीवन की बात करूँ तो बिमारियों एवं सेक्स के विकारों ने हमें घेर लिया है. बिमारियों की मुख्य वजह है हमारे रोजिंदा जीवन का खान-पान. साथ ही, सेक्स के विकारों का कारण है हमारे आस-पास के वातावरण की अश्लीलता.

आज दोनों चीज़ों से अमीर-गरीब, महिला-पुरष, छोटे-बड़े, समाज की हर इकाई ग्रस्त हैं. ऐसे में भोग और संभोग पर गांधीजी के विचार आज के समय में अत्यंत तर्कसंगत प्रतीत होते हैं.

भोजन को लेकर गांधीजी के विचार

एक किस्सा है, दांडी यात्रा के दौरान चूँकि गांधीजी 79 लोगों में सबसे वृद्ध थे इसलिए कार्यकर्ताओं ने उनके लिए एक घोड़े की व्यवस्था की थी. कार्यकर्ताओं के अनुसार गांधीजी घोड़े पर बैठेंगे और साथ में 78 कार्यकर्ता पैदल-पैदल कूच करेंगे. गांधीजी को जब इस व्यवस्था का इल्म हुआ तो उन्होंने कहा “मेरे लिए दिन में 24 किलोमीटर चलना वह भी बगैर किसी सामान के बच्चों का खेल है.”

गांधीजी के उस कथन के पीछे के आत्मविश्वास को समझने हेतु हमें उनके खान-पान पर गौर करना होगा कि उनके खान-पान में ऐसा तो क्या था कि वृद्ध होते हुए भी वे हमेशा ऊर्जावान रहते थे?

गांधीजी के आंदोलनों में जब आम-जनता के साथ-साथ जब राजा-महाराजा भी जुड़ रहे थे तब एक दिन काशी के महाराजा भी आंदोलन में जुड़ने हेतु गाँधीजी के आश्रम में आए. कुछ वार्ता बाद गांधीजी ने भोजन के लिए उन्हें साथ बिठाया. दोनों को सादा भोजन परोसा गया लेकिन एक विशेष चटनी जिसे गांधीजी बड़े चाव से खा रहे थे उसको महाराजा की थाली में परोसा नहीं गया.

जब महाराजा ने देखा कि गांधीजी चटनी मजे से खा रहे हैं, तो वह बार-बार उनकी ओर देखने लगे. गाँधीजी ने पूछा, ‘आपको भी चटनी चाहिए?’ फिर तुरंत गांधीजी ने चम्मच भर चटनी उनकी थाली में रख दी. महाराजा ने उसका स्वाद लेने की जल्दी में ढेर सारी चटनी अपने मुंह में भर ली. चटनी मुंह में रखते ही उनके मुंह का स्वाद बिगड़ गया. उनसे न निगलते बन रहा था न उगलते. महाराजा ने पूछा, ‘बापू, चटनी बड़ी कड़वी है. नीम की है क्या?’ गांधीजी बोले, ‘हां नीम की है. मैं तो वर्षों से रोज खा रहा हूँ. अब आप भी खाइए!”

दरअसल, गांधीजी का मानना था कि ‘हमें खाना स्वाद के लिए नहीं बल्कि ताकत पाने के लिए खाना चाहिए.’ इसलिए गांधी-आश्रम में एक नियम था कि हर खाने की वस्तु के साथ सब को नीम की चटनी भी खानी पड़ती थी, चाहे वह मीठी खीर ही क्यों न हो!

आज, पिज़्ज़ा और बर्गर के चार्मिंग दौर में हम अटपटे एवं चटपटे स्वाद के लिए हजारों रूपये खर्च कर रहे हैं लेकिन सामने दोगुने रूपये इलाज़ में भी लगा रहे हैं. आप किसी भी पेट की बिमारियों के चिकित्सक से गुफ़्तगू करिये, वह आपको स्वाद के पीछे भागने को मना ही करेगा!

चूँकि हम स्वाद के पीछे भाग रहे हैं इसलिए जंक-फ़ूड का चलन बढ़ा है. हम सभी जानते हैं कि जंक-फ़ूड अन-हाइजीनिक होता है, उसमे शुगर-फैट-कैलॉरी की मात्रा अधिक होती है, इस वज़ह से कई बीमारियाँ हमारे शरीर में घर कर जाती हैं, साथ ही शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता भी कमजोर पड़ जाती है.

स्वाद को वश में करना मतलब जिह्वा के माध्यम से हमारे मन को नियंत्रित करना! यदि हम स्वाद की इन्द्रियों को वश में कर लें तो फिर क्या नीम की चटनी और क्या पिज़्ज़ा-बर्गर! हमें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा!

मैंने देखा है कि हम जब नुक्कड़ के किसी शौचालाय के पास से गुज़रते हैं तो नाक पकड़ लेते हैं लेकिन उसी शौचालाय में काम करने वाले व्यक्ति को कुछ फर्क नहीं पड़ता. जहाँ हमारा 2 मिनट में ही दम घुटने लगता है, वह व्यक्ति वहीं रहता है, वहीं खाता है, वहीं पीता है. ऐसा इसलिए की उसने अपने नाक के माध्यम से मन को वश में कर लिया है.

भोजन के विषय में गांधीजी का शायद यही तर्क रहा होगा! और वास्तव में आज के दौर में यह बेहद दार्शनिक मालूम पड़ता है.

इसके अलावा, गांधीजी मानते थे कि व्रत रखना सेहत के लिए अच्छा होता है. इससे पेट साफ होता है और शरीर में चर्बी कम होती है.

दूसरा, गांधीजी दूध को माँसाहार की श्रेणी में रखते थे. उनका मानना था कि ‘चूँकि इंसानों में माँ के दूध का अधिकार सिर्फ उसकी संतान को है इसलिए पशुओं के लिए भी यही प्रथा होनी चाहिए. इंसानों को पशुओं का दूध पीने का कोई अधिकार नहीं है.’ लेकिन सेहत के चलते जब डॉक्टर ने उन्हें दूध पीने का आग्रह किया तो उन्होंने बकरी का दूध शुरू किया क्योंकि उसमे ज्यादा पोषक-तत्व होते हैं.

साथ ही, गांधीजी सब्जियों को ज़्यादातर कच्चा खाना ही पसंद करते थे. वे इसे अहिंसा से भी जोड़ा करते थे. पेय-पदार्थों की बात की जाए तो बापू चाय-कॉफी से दूर रहते थे और सिर्फ फलों के ज्यूस का सेवन करते थे.

गांधीजी का मानना था कि ‘खाना ऐसा खाना चाहिए जो केवल शरीर को ही नहीं बल्कि आत्मा को भी शुद्ध रखे.’

सेक्स को लेकर गांधीजी के विचार

गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ‘जिस वक्त उनके पिता की मौत हो रही थी तब वे अपनी पत्नी के साथ सेक्स कर रहे थे’.

गांधीजी चाहते तो वे इस बात को छिपा सकते थे लेकिन शायद उनके ऐसे ही कुछ गुण हैं कि अनंतकाल तक गांधी को पढ़ा जाएगा और अलग-अलग ढंग से लिखा भी जाएगा! उनके राष्ट्रपिता एवं महात्मा होने पर लोग सवाल भी करेंगे और समर्थन भी!

ख़ैर, गांधीजी 38 वर्ष के थे तब से उन्होंने ब्रम्हचर्य का व्रत ले लिया था लेकिन बीच में एक समय आया जब रविंद्रनाथ टैगोर की भतीजी सरलादेवी चौधरानी के लिए उनके मन में मृदु-भावनाएं पैदा हो गई थी. इस क़रीबी को समझने का एक अंदाज़ा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि गांधी सरला को अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ बताते थे. बाद के दिनों में गांधी ने ये भी माना कि इस रिश्ते की वजह से उनकी शादी टूटते-टूटते बची.

19वीं सदी की मशहूर ‘परिवार नियोजन एक्टिविस्ट’ मारग्रेट सेंगर को दिए एक इंटरव्यू में गांधीजी ने सेक्स को लेकर अपने विचार रखे थे. शुरुआत में दोनों महिलाओं की आज़ादी के पक्षधर नज़र आये लेकिन बाद में दोनों के विचार अलग-अलग नज़र मालूम हुए.

सेंगर का मानना था कि ‘गर्भ-निरोधक महिलाओं की आज़ादी का सबसे सुरक्षित माध्यम है.’ लेकिन गांधीजी ने यह कहते हुए एतराज़ जताया कि “महिलाओं को अपने पति को रोकना चाहिए, जबकि पति को अपनी कामुकता पर नियंत्रण करना चाहिए.”

गांधी के इस कथन के सामने सेंगर ने सवाल किया कि “क्या आपको लगता है कि दो लोग जो आपस में प्यार करते हैं, आपस में खुश हैं, वे दो साल में एक बार ही सेक्स करें! उनके बीच शारीरिक रिश्ता तभी बने जब वे बच्चा चाहते हों?” सेंगर ने आगे ज़ोर देते हुए कहा कि “ऐसे में ही गर्भ-निरोधक अपनाया जाना चाहिए ताकि अनचाहे गर्भ को रोका जा सके!”

इस बात पर गांधीजी नरम तो पड़े लेकिन अपनी बात से टस से मस न हुए. उन्होंने आगे जोड़ा कि ‘वे महिलाओं की आज़ादी के पक्षधर हैं. वे पुरुषों की स्वैच्छिक नसबंदी से भी एतराज़ नहीं करते लेकिन गर्भ-निरोधक की जगह दोनों को पत्नी के मासिक के सुरक्षित समय के दौरान सेक्स करना चाहिए.’

गांधीजी का मानना था कि ‘शरीर की स्वतंत्रता गर्भ-निरोधकों का सहारा लेकर प्राप्त नहीं की जा सकती. महिलाओं को यह सीखना चाहिए कि वें पति को कैसे रोकें! साथ ही पुरुषों को सीखना चाहिए कि वे कैसे अपनी कामुकता पर संयम रखे! यदि गर्भ-निरोधकों का पश्चिम की तरह उपयोग होने लग गया तो इसके परिणाम गंभीर होंगे! पुरुष एवं महिलाएं केवल सेक्स के लिए ही जिएंगे! वे मानसिक रूप से सुन्न एवं विक्षिप्त हो जाएंगे! वास्तव में वे दिमागी एवं नैतिक रूप से बर्बाद हो जाएंगे.”

वैसे गांधीजी के सेक्स से जुड़े विचारों पर नेहरू का ही कहना था ‘यें विचार असामान्य एवं अप्राकृतिक हैं!’

बावजूद, मैं आज जब यौन-शोषण, बलात्कार एवं घरेलू हिंसाओं के क़िस्से सुनता हूँ तो गांधी की बातें अधिक तर्कसंगत लगती हैं और इस बात का आभास होता है कि ‘वास्तव में इस दौर का मनुष्य, मानसिक रूप से सुन्न एवं विक्षिप्त हो चुका है! हम सभी दिमागी एवं नैतिक रूप से बर्बाद हो रहे हैं!’

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