सेक्स स्त्री-पुरुष को समान रूप से ‘आनंद’ देता है. लेकिन सेक्स की मर्यादा और सीमा है. उस पर धार्मिक तथा सामाजिक स्तर पर संयम की लगाम है. विज्ञान का दावा है कि संयम न हो तो सेक्स व्यक्ति की मृत्यु बन सकता है. ‘कामसूत्र’ जैसे महान ग्रंथ के रचयिता महर्षि वात्स्यायन ने संभोग के आनंद को ‘आभिमानिक’ माना है. आभिमानिक विषयों के रसों में अस्थायी आकर्षण को कहते हैं. इसलिए यह आनंद शाश्वत नहीं , अल्पकालिक तथा बार-बार पैदा होने वाला है. दार्शनिक परम्पराओं ने सेक्स की बजाय संयम की वकालत की है.
महर्षि वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ में सेक्स के कई स्वरूप बताए पर ‘कामशास्त्र’ में समलैंगिक संबंधों का कोई जिक्र नहीं है. समलैंगिकता पर चल रही बहस के बीच इसे अपराध के दायरे से बाहर किया जाए या नहीं, इस पर केंद्र सरकार ने फैसला पूरी तरह से सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ दिया है. केंद्र ने धारा 377 पर कोर्ट से अनुरोध किया है कि कोर्ट तय करे कि इस धारा के तहत समलैंगिक संबंध बनाना अपराध है या नहीं. कोर्ट में समलैंगिक मामलों पर सुनवाई की शुरूआत 2001 में तब हुई जब गैर सरकारी संगठन ‘नाज फाउण्डेशन’ ने इस संबंध में एक याचिका दायर की. कोर्ट ने वर्ष 2013 में समलैंगिक व्यक्तियों द्वारा परस्पर सहमति से यौन संबंध स्थापित करने को दंडनीय अपराध बनाने वाली धारा 377 को असंवैधानिक करार दिया. इस धारा के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करना दंडनीय अपराध है, जिसके तहत दोषी व्यक्ति को उम्र कैद या निश्चित अवधि के लिए सजा होती है और जुर्माना भी देना पड़ता है. नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने 24 अगस्त, 2017 के फैसले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना था. कोर्ट ने कहा था कि समलैंगिक लोगों को निजता के अधिकार से मात्र इस वजह से वंचित नहीं किया जा सकता कि उनका यौन रुझान गैरपारंपरिक है.
लगता है वे दिन अब दूर नहीं जब मां-बाप अपने बेटे से कहेंगे कि जात-पांत और धर्म को किनारे करके भी तुम अपने जीवन के लिए एक लडक़ी ही खोजना, लडक़ा नहीं. इससे उलट यह बात वे बेटी को भी समझा सकते हैं कि उन्हें अपनी बेटी के लिए ‘मर्द’ चाहिए न कि औरत! यह कोरी हवाई कल्पना मात्र नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में घट रहा सच है. नजर घुमाकर देखिए, पश्चिमी देशों के अनेक सैलिब्रिटीज के जीवन समलैंगिक संबंधों पर चल रहे हैं. आंकड़ों के मुताबिक भारत में मुंबई, चेन्नई ओर गोवा में समलैंगिक संबंधों में पिछले 5 साल में डेढ़ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. ये तीनों शहर समलैंगिकता के बड़े केंद्र के रूप में भारत में उभरे हैं. ऐसी परिस्थिति से अब यह हालात बन चुके हैं कि समलैंगिक संबंधों की वैधता-अवैधता को लेकर पूरी दुनिया में बहस जारी है.
अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर, 2015 में समलैंगिक संबंधों को जायज ठहराने के पक्ष में फैसला दिया था. उस समय उस फैसले पर पूरी दुनिया और धार्मिक मान्यताओं के बीच गहरी बहस छिड़ी थी. समान लिंग वाले आपसी रिश्तों को महत्व दिया जाए या नहीं, इस पर व्यापक विमर्श हुआ. समलैंगिकता के पैरोकारों का कहना है कि किसी स्त्री या पुरुष को किससे संबंध बनाना है, यह तय करना उनका व्यक्तिगत निर्णय है. उधर सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं से जुड़े लोगों का तर्क है कि ईश्वर के बनाए संसार में जो आदर्श चले आ रहे हैं, उनसे छेडख़ानी करना पुरानी प्रथाओं और सामाजिक तानेबाने को रसातल में ले जाना है. इसलिए समलैंगिकता को किसी स्तर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता.
समलैंगिकता संयम के विरोध से उपजती है. दुनिया की कोई विचारधारा ऐसी नहीं है जहां संयम की बात न हो. हालांकि सरल और सहज सुख प्राप्ति का सबसे आसान उपाय सेक्स है. दूसरे कामों में सुख के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. व्यापार हो या नौकरी सबमें परिश्रम करना पड़ता है. पर सेक्स प्रकृति का दिया ऐसा वरदान है कि यह सहज ही स्त्री-पुरुष दोनों को समान रूप से ‘आनंद’ देता है. लेकिन सेक्स की भी अपनी मर्यादा और सीमा बनाई गई है. उस पर धार्मिक तथा सामाजिक स्तर पर संयम की लगाम कसी गई है. विज्ञान का दावा है कि यदि संयम न हो तो सेक्स व्यक्ति की मृत्यु का कारण बन सकता है. ‘कामसूत्र’ जैसे महान ग्रंथ के रचयिता महर्षि वात्स्यायन ने संभोग के आनंद को ‘आभिमानिक’ माना है. आभिमानिक विषयों के रसों में अस्थायी आकर्षण को कहते हैं. इसलिए हकीकत में वह आनंद शाश्वत नहीं बल्कि अल्पकालिक तथा बार-बार पैदा हो जाने वाला है. इसी नाते दार्शनिक परम्पराओं ने सेक्स को महत्व न देकर संयम की वकालत की है. यदि कोई पूछे कि इस संयम का क्या प्रयोजन है? तो इसका उत्तर शाश्वत है कि संयम मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता है, उसे चरित्रवान बनाता है तथा वैराग्य के सहारे स्थायी आनंद देता है.
भारतीय परंपरा संयम पर आधारित है. उसके आराध्य यौन जीवन के प्रति पवित्र चरित्र वाले श्रीराम और माता सीता हैं. ‘रामायण’ पति-पत्नी के आपसी पवित्र रिश्तों का सबसे बड़ा महाकाव्य है, जो हरेक भारतीय के जीवन का उच्चादर्श है. साधु-संत संयम के सहारे श्रद्धा-वंदना और आकर्षण के केंद्र हैं. महर्षि वाल्मीकि से लेकर महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य और दयानंद सरस्वती जैसे दूसरे महापुरुषों का जीवन संयम का प्रतिमान है. परंपरा चार पुरुषार्थों को मानती है, उनमें धर्म और मोक्ष के बीच अर्थ और काम है. काम को सेक्स कहा जा सकता है. वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ में सेक्स के आध्यात्मिक और भौतिक स्वरूपों को तात्विक रूप से प्रकट किया. लेकिन इस बेजोड़ ‘कामशास्त्र’ में भी समलैंगिक संबंधों का कहीं कोई जिक्र नहीं है.
वाल्मीकि रामायण के ‘सुंदरकांड’ में माता सीता को खोजते हनुमान को लंका में राक्षसराज रावण के शयन कक्ष में आपस में प्रेम-आलिंगन करती नारियां जरूर दिखी – ऊरूपार्श्वकटीपृष्ठमन्योन्यस्य समाश्रिता:। परस्परनिविष्टांग्यो मदस्नेहवशानुगा:॥ साफ़ है समलैंगिकता कहीं है भी तो वह मानव संस्कृति का हिस्सा कभी नहीं रही.
भारतीय जीवन पद्धति चार आश्रमों में विभक्त है. इनमें ब्रह्मचर्याश्रम सर्वप्रथम है. बाद के तीन आश्रम गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास हैं. पर यह दुखद आश्चर्य है कि स्वतंत्र भारत की शिक्षा पद्धति ने में ब्रह्मचर्य को कोई महत्व नहीं दिया. स्कूली पाठ्यक्रमों में सेक्स शिक्षा जोडऩे की पैरवी तो बहुत होती है पर ब्रह्मचर्य के मानसिक और शारीरिक महत्व को सरकारों ने नजरअंदाज कर रखा है. जहां धर्मगत या संप्रदायगत विद्यालय-महाविद्यालय चलते हैं, वहां ब्रह्मचर्य की कठोर साधना के लिए छात्र-छात्राओं को जरूर प्रेरित किया जाता है. पर सरकारी स्तर पर ब्रह्मचर्य के प्रचार-प्रसार के लिए कभी कोई कदम उठाया गया हो, कहना मुश्किल है. जबकि होना यह चाहिए कि विद्यार्थियों में ब्रह्मचर्य के उदात्त संस्कार भरने की जिम्मेदारी सरकार को उठानी चाहिए.
महात्मा गांधी ने अपने जीवन में ब्रह्मचर्य को जोड़ा था. साबरमती आश्रम में गांधी अनेक लोगों से ब्रह्मचर्य का प्रयोग करवाते थे, जिसने आजादी के आंदोलन को मजबूती दी थी. ब्रह्मचर्य में कई अपराधों का समाधान गांधी ने खोजा था. आज के समय में भीषण समस्या बन चुके बलात्कार और यौनापराध का इलाज ब्रह्मचर्य के पास है. दुखद है कि मौजूदा शिक्षा पद्धति सेक्स के पक्ष में तो खड़ी है पर ब्रह्मचर्य पर मौन है! ‘कठोपनिषद’ के अनुसार भोग इंद्रियों के तेज को क्षीण करता है. मन को भटकाता है. एकाग्रता में बाधा पैदा करता है. इसीलिए छात्रावस्था में ब्रह्मचर्य को कठोरता से लागू करने को जरूरी माना गया है. संभव है, प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रह्मचर्य के महत्व को समझकर इस संबंध में मजबूत नीति बनाने की पहल कर सकें!
सेक्स में दोष नहीं है. यह मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है. सेक्स नर्वस सिस्टम को शिथिल बनाता है. मानसिक तथा शारीरिक शांति देता है. पर यदि सेक्स साधना है संयम उसका फल है. मैथुन का नियंत्रण संयम से किया जाता है. मैथुन में एक-दूसरे का उपभोग करने की बजाय उपयोग करने पर जोर है. यह पति-पत्नी के बीच मात्र सन्तान उत्पत्ति के लिए है, उससे बाहर नहीं. नीतिशास्त्र ने संयम को सेक्स के साथ जोडक़र मनुष्य को पशु बनने से रोका. पर ऐसी बातें युवाओं में अब मजाकिया रह गई है. ऐसे में जरूरी है कि भारत ब्रह्मचर्य का वैज्ञानिक विवेचन करे. ब्रह्मचर्य को जीवन शैली का अंग बनाकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित करने का काम करे, जिससे समलैंगिकता का सच्चा समाधान हो सके. जिसके परिणाम में विश्व योग दिवस की तर्ज पर विश्व ब्रह्मचर्य दिवस भी मनाया जाने लगेगा। ब्रह्मचर्य यौन अपराधों के समाधान में रामबाण सिद्ध होगा।
लेखक राजस्थान संस्कृत विवि, जयपुर में दर्शन शास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि दआर्टिकल.इन उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए आप हमें लिख सकते हैं या लेखक से जुड़ सकते हैं.@Kosalendradas
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