हर घडी ढल रही, शाम है जिंदगी, दर्द का दूसरा नाम है ज़िन्दगी – ये “सारांश” है!
भारतीय सिनेमा जगत की वो फिल्म जो लोगों के दिलों में आज भी नाम लेते ही रिवाइंड होने लगती लगती है. बेहद संजीदा और बेबाक डायलॉग, बेहतरीन अभिनय, ऐसी पटकथा, बैकग्राउंड स्कोर वो जो इसकी कहानी तक पहुँचने में और भी मदद करे, गाने के बोल जो लफ्ज़ दर लफ्ज़ दिल में उतरते जाते हैं. बात हो रही है 1984 में बनी फिल्म “सारांश” वैसे तो इस फिल्म को ऐसे याद करने की एक और वजह है, कि अनुपम खेर की पहली फिल्म भी थी. इस फिल्म में उनके अभिनय का जवाब के तौर पर आज उनका सिनेमा में इतना बड़ा नाम है शायद या ऐसा भी कह सकते हैं कि जब उनके काम की तारीफ उस वक़्त इतनी हुई थी कि उसके बाद उनको कभी अपने प्रतिभा से समझौता नहीं करना पड़ा.
अनुपम खेर आज 500 से अधिक फिल्में कर चुके हैं लेकिन 1984 में आई अपनी पहली ही फिल्म “सारांश” को 1985 में इस फिल्म का आस्कर्स की श्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्मों की श्रेणी में भारत की पहली आधिकारिक प्रविष्टि के तौर पर भी भेजा जाना, सबको बताता है कि फिल्म में डेब्यू कलाकार ने किस दर्जे की एक्टिंग की होगी और किस दर्जे की कसी हुई स्क्रिप्ट लिखी गई होगी.
लगभग आठ महीनों की घोर तैयारी के बाद अनुपम खेर को पता चला कि उनका रोल संजीव् कुमार को दे दिया है तो दिल्ली लौट जाने से अपने मन की भड़ास महेश भट्ट पर निकालने पहुंचे और खूब गरियाया. लेकिन अनुपम खेर के उस आहत रूप में महेश भट्ट को उनकी फ़िल्म कर बूढा प्रिंसिपल बी व्ही प्रधान दिख गया.
सारांश में सब कुछ था एक बुजुर्ग दम्पति के अपने एक मात्र बेटे के चले जाने का वियोग-संघर्ष, करप्शन से जूझते एक ईमानदार आम आदमी की लड़ाई. एक राजनेता की दबंगई राजनीती, एक कमजोर नौजवान की रिश्ते निभाने से पीछे हटना का कमजोरपन, समाज का दोगला चेहरा. सारांश में अच्छाई थी तो बुराई भी, संघर्ष भी तो संघर्ष से भागने का दुस्साहस और अंत में उसी संघर्ष से लड़ते रहने का साहस भी इस कहानी में एक पंक्ति अनुपम खेर अपने छात्र को सिखाते हैं, “देयर इज होप, उम्मीद है” ये पंक्ति ही है जिसकी वजह से पूरी कहानी जुडती चली जाती है. अनुपम खेर जो इस फिल्म में रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं. उनके साथ इस कहानी के किरदारों में रोहिणी हतंगगदी जो उनकी पत्नी है. अपने मरे हुए बेटे के गम में दोनों के जो स्थितियां होती हैं, उसी को इस फिल्म में दर्शाया गया है. फिल्म महेश भट्ट के निर्देशन बनी राजश्री प्रोडक्शन की इस फिल्म को इतना सराहा गया कि अनुपम खेर को पहली ही फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फिल्मफेयर अवार्ड मिला था उसके बाद से अब तक इन्हें 8 बार फिल्म फेयर मिल चुका है, इन्हें इनके अभिनय के लिए पद्मश्री भी मिल चुका है 27 साल की उम्र में जब 70 साल के बुजुर्ग का अभिनय किया था तभी ही शायद समझ जाना चाहिए था इनके लिए इन पुरस्कारों का ताँता लगने वाला है इतना ही नहीं इस फिल्म को और भी कई जगह नामित किया गया और सर्वश्रेष्ठ कहानी, कला आर्ट डायरेक्शन और बहतरीन गानों के लिए भी फिल्म फेयर से पुरस्कृत हुई थी.
कहानी में छोटी-बड़ी बहुत सी चीजें, डायलॉग ऐसे हैं जो आज भी उतने ही कारगर हैं, उतने ही सटीक है. व्यंग्यात्म तरीके से कुछ चीजों को परोस दिया गया तो कुछ चीजों को सीधे मुंह पर थूक दिया गया बातें बोलीं गयी वो तो गहरी थी ही, जो नहीं बोली गयी बस समझानी चाही वो उससे भी ज्यादा गहराई में ले गयी किसी को जीवित रखने का अलग ही नजरिया सामने आया था. आजकल की राजनीति का चेहरा सामने आया ही था साथ ही कुछ ईमानदार लोगों का तरीका भी हर तरह से इस कहानी को खुद से जोड़ देने वाले मुद्दे थे तत्कालीन स्थिति जो भी रही हो, आज भी शायद हम वहीँ खड़े हैं, फिर चाहे वो राजनीति हो, जीवन शैली हो या किसी की आत्मिक कहानी, शिक्षा प्रणाली पर प्रहार हो या आस्था और विश्वास है वही अंधविश्वास भी और तो और सामाजिक सोच, जैसा की इस फिल्म में एक बहतरीन डायलॉग है, जो बी व्ही प्रधान (अनुपम खेर) अपने दोस्त विश्वनाथ को कहते हैं, “बिन ब्याही माँ बनती है तो शरम की बात है, पर कोख में पल रहे बच्चे की हत्या करते हुए समाज को शर्म नहीं आएगी” सामाजिक सोच पर प्रहार इससे बहतर और क्या हो सकती है जीवन उतना ही मुश्किल है बॉलीवुड की फिल्मों में मील का पत्थर आज भी इस फिल्म को कहा जा सकता है.
अंत में इसकी एक और पंक्ति जो बी व्ही प्रधान की पत्नी फिल्म के अंत में उनसे कहती हैं, “जिंदगी अब तुम, मैं, दिवार पर टंगी तस्वीर, यादें और बस?”
ऐसा क्या खास था सारांश में?
सारांश शब्द का अर्थ होता है, किसी विषय के मूल भाव को कमसे कम शब्दों में बयां करना. फ़िल्म में अनुपम खेर इसी भाव को हूबहू जीते नजर आते हैं. वे बोलते कम हैं और अनुभव ज्यादा करवातें हैं. लेकिन जब भी बोलते हैं तो मानो दर्शको के बीच की आवाज़ परदे पर सुनाई दे रही हों. उनके अभिनय का हर एक लम्हा दर्शको के मन में घर कर जाता है.
पूरी फिल्म एक मध्यवर्गीय रिटायर्ड बूढ़े पिता बीवी प्रधान के इर्द गिर्द घूमती हैं जिसका जवान बेटा यकायक विलायत में मर जाता है. बेटे की अस्थियों से लेकर हर छोटे बड़े दृश्य में पिता के संघर्ष और बेबसता को दर्शाया गया है जो उन्हें रोज ब रोज आत्महत्या करने पर मजबूर करती हैं. लेकिन नहीं.
कहते हैं, ऐसे समय भगवान ही एक सहारा होते हैं लेकिन बीवी प्रधान एक नास्तिक व्यक्ति हैं. उनकी यही नास्तिकता उनके अकेलापन की सबसे बड़ी वजह है जो उन्हें बेटे की मौत बर्दाश्त करने नही देती. बीवी प्रधान के स्वभाव के विपरीत उनकी पत्नी पार्वती ईश्वर में आस्था रखने वाली हैं. एक दृश्य में प्रधान कहते हैं “पार्वती के देवी-देवताओं ने उसे अजय(बेटा) की मौत बर्दाश्त करने की हिम्मत दे दी हैं, लेकिन मेरे पास बचाव का ऐसा कोई रास्ता नहीं हैं.” फिल्म में बेशक अनुपम खेर का किरदार नास्तिक है मगर कहीं भी ईश्वर में आस्था रखने वाले दर्शको की भावना को ठेस पहुंचाने का मकसद नजर नही आता. एक सहज तरीके से सारे किरदार अपने अपने पात्रों को न्याय देते हैं.
फ़िल्म में नाटकीय मोड़ तब आता हैं जब बुजुर्ग प्रधान दम्पत्ति अपने घर के एक कमरे को पेइंग गेस्ट के तौर पर देने का निर्णय करते हैं. इससे थोड़ी बहुत आय भी हो जाएगी और उनका अकेलापन दूर हो जाएगा. पेइंग गेस्ट के रूप में सुजाता सुमन एक एक्ट्रेस है जो कुछ समय बाद शादी से पहले ही पेट से हो जाती हैं. लेकिन उसकी ख्वाहिश है कि वो इस बच्चे को जन्म दें. वहीं पार्वती को लगने लगता है कि सुजाता के पेट मे पल रहा बच्चा, अजय का पुनर्जन्म है. सुजाता की ख्वाईश और पार्वती की भ्रांति के बीच बीवी प्रधान और अधिक बेबस नजर आते हैं और सुजाता को कहीं और रहने की सलाह देते हैं. अजय के पुनर्जन्म की इस कश्मकश में के बीच, प्रधान, पार्वती को समझातें है कि ‘तुम्हारे चेहरे की झुर्रियों में मेरे जीवन का सारांश हैं.’
खैर, सारांश के समकक्ष भी फ़िल्म बनाना मुश्किल है मगर महेश भट्ट इसकी रीमेक को डायरेक्ट करने की सोच रहे हैं और माना जा रहा है कि इसमें राजकुमार राव लीड रोल प्ले करने वाले हैं.
सारांश के कुछ बेहतरीन सीन्स –
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