पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव

राजस्थान सहित चार राज्यों में विधानसभा चुनाव इस साल के आखिर तक सम्पन्न हो जाएंगे. राजस्थान के अलावा छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है. तेलंगाना में टीआरएस और मिजोरम में स्थानीय पार्टी सत्ता में है. इन चुनावों में सबसे ज्यादा चिंता भाजपा को है क्योंकि उसकी प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा दांव पर है. केंद्र की मोदी सरकार के साथ साथ स्थानीय क्षत्रपों की भी ये कड़ी परीक्षा है. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की मजबूरी है कि हिंदी बेल्ट के इन तीन बड़े प्रदेशों में वे किसी भी तरह का जोखिम नहीं ले सकते. चाहे स्थानीय कार्यकर्ता सरकार के मुखिया से लाख नाराज़ हों. उन्हें लग रहा है कार्यकर्ताओं को चुनाव के बाद समझाया जा सकता है, मगर चुनाव से ऐन पहले नेतृत्व में किसी तरह का बदलाव करने से जनता के बीच गलत संदेश प्रसारित होगा. ऐसे में केंद्रीय नेतृत्व के पास अब कोई और उपाय भी नहीं है. अभी तक के मीडिया सर्वे हिंदी बेल्ट के तीनों राज्यों में कांग्रेस को आगे बता रहे हैं. मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में भाजपा पिछले पंद्रह सालों से सत्ता में है. जाहिर है कांग्रेस लोगों के बीच सरकार के खिलाफ एन्टी इनकंबेंसी को स्थापित करने में कामयाब होती दिख रही है.

मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के लिए आरक्षण, एसटी/एससी एक्ट के संदर्भ में बयानबाजी, अकादमिक और भर्ती परीक्षाओं में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और कानून व्यवस्था बड़े मुद्दे है. इन्हीं मुद्दों पर कांग्रेस उन्हें घेरने की कोशिश कर रही है. राहत की बात ये है कि भाजपा के भीतर अभी तक कोई गंभीर गुटबंदी मध्यप्रदेश में नजर नहीं आती. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और भाजपा के बीच अभी भी पिछली बार की तरह कांटे का मुकाबला होने जा रहा है. डॉ रमन सिंह के खिलाफ कांग्रेस के पास कोई बड़ा मुद्दा नहीं है. पिछले साल भ्रष्टाचार के कुछ मामले सुर्खियों में उठे थे. लेकिन रमन सिंह ने उन्हें बड़ी चतुराई के साथ ठंडा कर दिया. देखने वाली बात ये होगी कि कांग्रेस डॉ रमन सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार के उन मुद्दों को कितनी प्रखरता के साथ जनता के बीच ले जाती है. कांग्रेस के पूर्व दिग्गज अजित जोगी बसपा के साथ गठबंधन करके कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेरने की कोशिश में है. यहां बसपा ने कांग्रेस को ठेंगा दिखाने की कोशिश की है. देखने वाली बात होगी कि बसपा यहां कांग्रेस का कितना नुकसान कर सकती है.

अब राजस्थान की बात. प्रदेश में पार्टी से जुड़े आम लोगों में मुख्यमंत्री के खिलाफ गहरी नाराजगी दिखाई देती है. हालांकि उन्हें कुरेदने पर वे इसकी कोई खास वजह नहीं बताते. मोटे तौर पर बजरी खनन पर रोक, सरकारी भर्तियों को लेकर असंतोष, मंत्रियों और विधायकों का रूखा व्यवहार, राजपूत और सामान्य वर्ग की नाराज़गी, ब्राह्मण नेताओं का अलगाव, कुछ मोटे मोटे मुद्दे हैं जिन पर समाज के विभिन्न वर्गों में विमर्श हो रहा है.  प्रदेश के कोटे से केंद्र में मंत्री भी प्रदेश के लिए अभी तक कुछ खास नहीं कर पाएं हैं. इन मंत्रियों से प्रदेश के सांसद और विधायक खासे नाराज नजर आते हैं. स्थानीय विधायक और सांसद प्रदेश के कोटे से मंत्री बने युवा नवोदित नेता के खिलाफ अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए स्वीकारते हैं कि वे उन्हें तवज्जो तक नहीं देते. सांसदों की उपलब्धियां भी गिनने लायक नहीं है.

अब बात करते हैं कांग्रेस की. 2019 को देखते हुए कांग्रेस के लिए इन तीनों राज्यों में सत्ता की सबसे ज्यादा दरकार है. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो वह पिछले 15 सालों से सत्ता से बाहर है. राजस्थान में जरूर वह हर पांच साल के गणित के हिसाब से सत्ता में रहती है. उस गणित के हिसाब से इस बार कांग्रेस का टर्म है. तीनों राज्यों में कांग्रेस उतनी सहज स्थिति में नहीं है, जितना पार्टी नेता अनुमान लगा रहे हैं. छत्तीसगढ़ में अजित जोगी कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती है. साथ में मायावती के उनके साथ आने से ये चुनौती और भी मुश्किल हो गई है. ये सीधे सीधे कांग्रेस के पारंपरिक दलित वोटों को काटने का काम करेगी.

मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य और कमलनाथ भले ही जनता के सामने एक साथ नजर आ रहे हों, मगर ज्योतिरादित्य की महत्वाकांक्षा से कोई अनजान नहीं है, फिर ज्योतिरादित्य ने शिवराज सिंह की सरकार के खिलाफ जमीन पर संघर्ष भी किया है, तो निश्चित रूप से उन्हें उसका प्रतिफल मिलना चाहिए. मगर केंद्रीय नेतृत्व ने पार्टी की कमान कमलनाथ के अनुभवी हाथों में सौंपकर संतुलन बनाये रखने का काम किया है. ये संतुलन कितना कामयाब होगा, देखने वाली बात होगी.

राजस्थान में कांग्रेस में धड़ेबंदी जगजाहिर है. तभी तो पार्टी नेता ने कहा, पायलट और गहलोत को एक ही मोटरसायकिल पर देख कर लग रहा है, राजस्थान में अब कांग्रेस की सरकार आने से कोई नहीं रोक सकता. इसका मतलब ये की इन के बीच थोड़ी सी भी फूंक मार दी जाए तो नतीजा बदलना संभव है.

क्या भाजपा रणनीतिकार इस पर काम कर रहे हैं?

क्या भाजपा अपने क्षत्रपों और मोदी के कारनामों के दम पर तीनों राज्यों में एक बार फिर कमल खिला पाएगी? निश्चित रूप से ये चुनाव किसी भी पक्ष में एक तरफा नहीं लगते. भाजपा भले ही नरेंद्र मोदी की उपलब्धियों को गिनाकर सत्ता हासिल करना चाहती हो, लेकिन स्थानीय क्षत्रपों के खिलाफ नाराजगी भी अपनी कीमत वसूलेगी. किसी भी शासन के पंद्रह साल सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में काफी वक्त होता है. दुर्भाग्य से कांग्रेस इस मायने में फिसड्डी साबित हुई.

भाजपा और कांग्रेस के लिए तीनों हिंदी प्रदेशों के चुनाव नई दिशा तय करेंगे. राहुल गांधी के लिए बडी चुनौती है कि उनके नेतृत्व में पार्टी ने अभी तक किसी बड़े राज्य में फतह नहीं की. राहुल गांधी के लिये सबसे बड़ी चुनौती इन राज्यों में धड़ों में बंटी पार्टी को  चुनावों तक इकट्ठा रखना है. मगर राजनीति की फिसलपट्टी पर ये आसान नहीं है. हाल में राजस्थान के दौरे पर आए राहुल गांधी खुद अपनी आँखों से इन नजारों को देख चुके हैं . पूर्वी राजस्थान में एक जनसभा में पायलट समर्थकों ने गहलोत के खिलाफ जमकर नारेबाजी की. बीकानेर जिले में एक सभा मे विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रामेश्वर डूडी के समर्थकों ने भी पूर्व मुख्यमंत्री गहलोत को बोलने नहीं दिया. जबकि असल सच्चाई ये है कि प्रदेश कांग्रेस में अगर सबसे ज्यादा लोकप्रिय कोई नेता है तो वह अशोक गहलोत है. कांग्रेस समर्थक मानते हैं कि प्रदेश में गहलोत की टक्कर का जनाधार वाला कोई नेता नहीं है.

भाजपा के रणनीतिकारों के लिए ये ही सबसे बड़ी चुनौती है कि वे कांग्रेस को कांग्रेस से कैसे लड़वा सकते हैं. राजस्थान में सचिन पायलट और अशोक गहलोत, मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य और कमलनाथ धड़ों में बंटी कांग्रेस ही भाजपा के लिए वरदान साबित हो सकती है.  छत्तीसगढ़ में अजित जोगी का हाथ मजबूत कर रमन सिंह फिर सत्ता की दहलीज छू सकते हैं. क्योंकि सिर्फ मोदी सरकार का नाम अब काफी नहीं है.

कांग्रेस नेतृत्व अगर चुनावों तक अपने स्थानीय छत्रपों को काबू में रखकर पार्टी को एकजुट रख सका तो इन राज्यों में उसके लिए सत्ता का अकाल खत्म हो सकता है. ये चुनाव दोनों दलों के रणनीतिकारों का असली चुनाव है.


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि 'दआर्टिकल.इन' उनसे सहमत हो.

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