विधानसभा चुनाव से महज डेढ़ महीने पहले राजस्थान के वागड़ अंचल में दस्तक देने वाली भारतीय ट्राइबल पार्टी ने डूंगरपुर जिले की दो सीटों पर जीत दर्ज की जबकि एक सीट पर वह दूसरे नंबर पर रही.
राजस्थान के इतिहास में ईमानदारी, वीरता, स्वामी भक्ति और प्रकृति के साथ तालमेल के कई किस्से जोड़ने वाली भील जनजाति आजकल अपनी सियासी समझ के लिए चर्चा में है. हाल ही में हुए सूबे के विधानसभा चुनाव में भीलों ने डूंगरपुर जिले में भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) के दो उम्मीदवारों को विजयी बनाकर सबको चौंका दिया है. चौरासी सीट पर बीटीपी के प्रत्याशी राजकुमार रोत ने वसुंधरा सरकार के मंत्री सुशील कटारा व कांग्रेस नेता मंजुला रोत को धूल चटाई जबकि सागवाड़ा सीट पर रामप्रसाद डेंडोर ने भाजपा के शंकर डेचा व कांग्रेस के सुरेंद्र बामणिया को शिकस्त दी. वहीं, आसपुर सीट पर बीटीपी की ओर से मैदान में उतरे उमेश डामोर भाजपा उम्मीदवार से नजदीकी मुकाबले में हारे. कांग्रेस इन तीनों सीटों पर तीसरे स्थान पर रही.

डूंगरपुर सीट पर जरूर कांग्रेस के उम्मीदवार गणेश घोगरा ने जीत फतह हासिल की, लेकिन यहां भी बीटीपी के प्रत्याशी डॉ. वेलाराम घोघरा ने 8.17 फीसदी वोट प्राप्त किए. बीटीपी ने आदिवासी बहुल बांसवाड़ा, उदयपुर और प्रतापगढ़ में भी अपने प्रत्याशी खड़े किए थे. इनमें से किसी को जीतने में तो कामयाबी नहीं मिली, लेकिन गढ़ी में 11.42, खेरवाड़ा में 10.87, बागीदौड़ा में 4.94, धारियावाड़ में 2.33 और घाटोल में 2.18 फीसदी वोट हासिल किए. चुनाव से महज डेढ़ महीने पहले राजस्थान के आदिवासी इलाके में सक्रिय हुई बीटीपी का यह प्रदर्शन चौंकाने वाला है. गौरतलब है कि बीटीपी का गठन आदिवासी नेता छोटूभाई वसावा ने पिछले साल गुजरात चुनाव से पहले किया था.
वसावा भरुच जिले में झगड़ीया से जदयू के विधायक रहे हैं. नीतीश कुमार ने जब बिहार में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई थी तो वसावा ने शरद यादव के साथ अलग रास्ता अपना लिया. चुनाव आयोग की ओर से शरद यादव को जदयू का ‘तीर’ चुनाव चिह्न देने से इनकार करने के बाद वसावा ने गुजरात विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भारतीय ट्राइबल पार्टी का गठन किया. चुनाव में कांग्रेस ने पांच सीटों पर उनके साथ गठबंधन किया. पार्टी ने इनमें से दो पर जीत दर्ज की. कांग्रेस ने गुजरात चुनाव में तो बीटीपी के साथ गठजोड़ किया, लेकिन राजस्थान में उसे कोई तवज्जो नहीं दी. जबकि बीटीपी ने चुनाव से डेढ़ महीने पहले ही मैदान में उतरने का एलान कर दिया था.

चुनाव से पहले न तो कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व ने बीटीपी को अहमियम दी और न ही स्थानीय नेताओं ने. भाजपा का भी यही रुख रहा. चुनाव से पहले बीटीपी को चंद लोगों का झुंड बताने वाले कांग्रेस और भाजपा के स्थानीय नेता अब दबे स्वर में स्वीकार कर रहे हैं कि उनका आकलन गलत साबित हुआ. असल में दोनों दल बीटीपी को एकाध प्रतिशत वोट मिलने लायक पार्टी मान रहे थे. भाजपा ने यह सोचकर इस नवोदित राजनीतिक दल को नजरअंदाज किया कि यह कांग्रेस के वोट काटेगी जबकि कांग्रेस यह मानकर बैठी थी कि यह भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाएगी. दोनों दल इसी गलतफहमी में चुनावी रण में उतरे, जो उनके लिए आत्मघाती साबित हुआ.
वागड़ की राजनीति के जानकारों के मुताबिक क्षेत्र में बीटीपी का बढ़ता प्रभाव भाजपा से ज्यादा कांग्रेस के लिए नुकसानदायक है. भीलों को परंपरागत रूप से कांग्रेस का वोट बैंक माना जाता है, लेकिन पार्टी यहां के सामाजिक बदलावों को भांपने में नाकामयाब रही है. कांग्रेस ने समाजवादी पुरोधा मामा बालेश्वर दयाल को नजरअंदाज कर यहां जनता दल को पनपने का मौका दिया. इस इलाके में बालेश्वर दयाल का इतना प्रभाव था कि वे जिसके सिर पर हाथ रख देते थे वो चुनाव जीत जाता था. चूंकि उनके और जॉर्ज फर्नांडीस के बीच घनिष्ठता थी इसलिए यह क्षेत्र जनता दल का गढ़ बन गया. कांग्रेस ने तो इसे कई बार भेदा, लेकिन भाजपा लाख कोशिशों के बाद भी यहां अपने पैर नहीं जमा पाई.
भैरों सिंह शेखावत ने जनता दल के साथ गठबंधन कर इस क्षेत्र में भाजपा की जड़ें जमाने की कोशिश की, जिसमें वे सफल रहे. 90 के दशक में जहां भाजपा ने इस क्षेत्र पर ज़्यादा ध्यान दिया, वहीं जनता दल की सक्रियता स्थानीय नेताओं तक ही सिमटने लगी. 1998 में मामा बालेश्वर दयाल के निधन के बाद भाजपा ने यहां अपना जनाधार मजबूत करने की योजना पर तेजी से काम शुरू किया. इस बीच जनता दल का बिखराव हो गया. वागड़ इलाके के नेता जेडीयू के साथ गए, लेकिन कईयों को भाजपा ने अपने पाले में कर लिया. 2008 का विधानसभा चुनाव भाजपा और जेडीयू गठबंधन का आख़िरी पड़ाव साबित हुआ. हालांकि दोनों दलों के बीच गठबंधन का औपचारिक ऐलान हुआ था, लेकिन भाजपा इसे तोड़ते हुए जेडीयू के प्रभाव वाली तीनों सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए. इस खींचतान का नतीजा यह हुआ कि भाजपा को डूंगरपुर और बांसवाड़ा ज़िलों में एक सीट भी नसीब नहीं हुई. जेडीयू को फिर भी एक सीट पर जीत हासिल हुई.
2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा यहां अकेले मैदान में उतरी और वागड़ की ज्यादातर सीटों पर जीत दर्ज की. 2014 के लोकसभा चुनाव में भी यहां भाजपा का जादू चला, लेकिन जल्द ही आदिवासियों का सत्ताधारी दल से मोहभंग हो गया. इस लिहाज से इस बार वागड़ की भील जनजाति के वोट कांग्रेस को मिलने चाहिए थे, लेकिन बीटीपी राह में रोड़ा बन गई. बीटीपी के नेता लोगों को यह समझाने में कामयाब रहे कि इलाके की कांग्रेस और भाजपा ने बारी—बारी से उपेक्षा की है. अपने हक—हकूक के लिए खुद के बीच से लोगों को चुनकर भेजना जरूरी है.
वैसे भीलों की राजनीतिक चेतना अचानक नहीं जागी है. इसके प्रयास पिछले पांच साल से चल रहे थे. भील आॅटोनोमस काउंसिल ने लगातार ‘आदिवासी परिवार चिंतन शिविर’ लगाकर भील जनजाति को संविधान की पांचवीं अनुसूचि में प्रदत्त अधिकारों के प्रति जागरुक किया. काउंसिल ने आदिवासी युवाओं के बीच अपने पैठ बढ़ाने के लिए यूथ विंग खड़ी की. भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा (बीपीवीएम) चार साल पहले छात्रसंघ चुनाव में उतरा और डूंगरपुर जिले की तीन कॉलेजों में एबीवीपी और एनएसयूआई को शिकस्त दी. चुनाव दर चुनाव बीपीवीएम ने अपनी ताकत को बढ़ाया. वसुंधरा सरकार में मंत्री रहे सुशील कटारा के गृह क्षेत्र चौरासी के संस्कृत कॉलेज में बीते दो साल से बीपीवीएम के प्रत्याशी छात्रसंघ के सभी पदों पर निर्विरोध निर्वाचित हो रहे हैं.
यानी विधानसभा चुनाव में बीपीटी ने उसी सियासी जमीन पर फसल काटी जिसे भील आॅटोनोमस काउंसिल और भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा ने पांच साल तक खाद—पानी दिया था. चौरासी सीट से चुनाव जीते राजकुमार रोत तो सीधे तौर पर छात्रसंघ की राजनीति से निकले युवा चेहरे हैं. वे 2014-15 में डूंगरपुर कॉलेज के अध्यक्ष चुने गए थे. रोत की उम्र महज 26 साल है और वे विधानसभा के सबसे कम उम्र के विधायक हैं. विधानसभा चुनाव में दो सीट जीतने से उत्साहित बीटीपी ने लोकसभा चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है. पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष डॉ. वेलाराम घोघरा कहते हैं, ‘क्षेत्र के लोगों में कांग्रेस और भाजपा के प्रति गहरी नाराजगी है. हमारी पार्टी विधानसभा चुनाव में विकल्प बनने में सफल हुई है. हम लोकसभा चुनाव में पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरेंगे और जीत दर्ज करेंगे.’
बीटीपी के विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन और लोकसभा चुनाव लड़ने के एलान से कांग्रेस और भाजपा चिंतित हैं. एक ओर कांग्रेस को अपने परंपरागत वोट बैंक के हमेशा के लिए हाथ से निकलने का डर सता रहा है, वहीं दूसरी ओर भाजपा भील जनजाति के पार्टी से छिटकने का तोड़ नहीं निकलने से परेशान है. विधानसभा चुनाव में बीटीपी को हल्के में लेने की भूल कर चुके दोनों दल लोकसभा चुनाव में नई रणनीति के साथ मैदान में उतरने की योजना बना रहे हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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