नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
एक महीने के भीतर ही माँ भारती के दो-दो हिंदी-पुत्रों का इस कदर चला जाना, ‘नीरज-अटल‘ जैसे हिंदी-साहित्य के दो-दो संतानों का बिलकुल शान्ति से, चुपके से, अंतिम विदा ले लेना, हिंदी के ह्रदय पर एक अत्यंत गहरा घाव तो है ही, साथ ही साथ, राष्ट्रीय फलक से दो-दो देदिप्यमान सितारों का इस राष्ट्र के लिए भौतिक सानिध्य समाप्त हो जाना है.
अटल जी का चला जाना राष्ट्रीय राजनीति की मरणासन्न चेतना को कविता के संगीत से सुगन्धित कर पुनर्जीवित करने वाले एक युग की सुन्दरता पर पूर्ण विराम है एवं कीचड़ में सने हुए, एक गहरे तात्कालिक उदासी में जकड़े हुए, राजनीति के आशाविहीन उद्विग्न ह्रदय को शुचिता, शालीनता, संगीत और नृत्य सिखाने वाले एक विराट-व्यक्तित्व का उसी संगीत की धुन में समाधिस्थ हो जाना है.
अटल जी, कवि पहले थे और राजनीतिज्ञ बाद में | ऐसा मैं नही कह रहा हूँ, कई मर्तबा उन्होंने स्वयं स्विकार किया है. राजनीति का अनिवार्य छल-कपट प्रायः उन्हें अन्दर तक बहुत ही व्यथित किया करता था. बहुत समय पहले राष्ट्रीय हिंदी दैनिक ‘दैनिक जागरण’ के एक विशेषांक में उनका लम्बा इंटरव्यू छपा था, जिसमें उन्होंने स्वयं स्वीकार किया था कि कभी-कभी उन्हें लगता है कि राजनीति से पूर्णकालिक संन्यास लेकर प्राकृतिक सानिध्य में कुछ मौलिक रचने चला जाऊं. परन्तु राष्ट्रधर्म ने सर्वदा उनके पाँव खींचते रहे. आखिर देश को मौलिक दुर्दशाओं में ग्रस्त छोड़कर वह साहित्य की पूर्ण साधना एकाग्र एवं एकचित्त मन से कर भी कैसे सकते थे? जो अपने वर्तमान के साथ न्याय नही कर सकता है, वह भविष्य के साथ क्या न्याय करेगा? शायद, इसी मौलिक विचार ने अटल जी को चाहते हुए भी राजनीति से विगलित नही होने दिया. राष्ट्र उनके लिए सर्वप्रथम था. अतः मन एवं मस्तिष्क के धरातल पर स्वयं से झुझते हुए भी वह राजनीति के पथ पर आगे बढ़ते रहे, बिलकुल ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि’ को ह्रदय में धारण किये हुए.
अटल जी राजनीति के व्यक्ति नही थे और न तो राजनीति उनकी प्राथमिक पहचान है. उनकी प्राथमिक पहचान उनकी साहित्य-साधना है, उनका कवि होना है, ज्ञान का उपासक होना है, न कि प्रधानमन्त्री होना. विशेषकर मेरे लिए तो उनका प्रधानमन्त्री होना उनकी सबसे अंतिम पहचान है, और कवि होना सर्वप्रथम. वो कहते हैं न कि मनुष्य होना भाग्य है और कवि होना सौभाग्य. वह प्रधानमंत्री की कुर्सी को पाकर तो नही परन्तु प्राधानमंत्री की कुर्सी उन्हें पाकर गौरवान्वित अवश्य हुई है.
जयशंकर प्रसाद की कालजयी रचना ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में, दो पात्रों मिहिरदेव और शकराज के बिच ‘राजनीति’ के विषय पर तीखी नोक-झोंक होती है जिसमे मिहिरदेव, शकराज से यह कहता है:
राजनीति! राजनीति ही मनुष्यों के लिए सब कुछ नहीं है। राजनीति के पीछे नीति से भी हाथ न धो बैठो, जिसका विश्व मानव के साथ व्यापक सम्बन्ध है। राजनीति की साधारण छलनाओं से सफलता प्राप्त करके क्षण-भर के लिए तुम अपने को चतुर समझने की भूल कर सकते हो, परन्तु इस भीषण संसार में एक प्रेम करने वाले हृदय को खो देना, सबसे बड़ी हानि है शकराज!
उपरोक्त उक्ति का अंश-अंश भारतीय राजनीति के भीष्मपितामह अटल जी पर अक्षरशः चरितार्थ होता है. राजनीति में रहते हुए भी उन्होंने कभी नीति से हाथ नही धोया जिसका वास्तव में विश्व-मानव के साथ वास्तव में व्यापक सम्बन्ध है.
अटल जी प्रायः कहा करते थे, “न भीतो मरनादश्मिक केवलम् दुषितो यशः” अर्थात “मैं मृत्यु से नहीं डरता हूँ. डरता हूँ तो बदनामी से डरता हूँ! लोकापवाद से डरता हूँ!” और यह एक सुखद एवं गौरवपूर्ण सच्चाई है कि अटल जी राजनीति-रूपी काजल की कोठारी से श्वेत निकलने में सक्षम रहे, सिर्फ और सिर्फ अपने सत्य, साहित्य और सिद्धांत की बदौलत. वह वास्तव में भारतीय राजनीति के कीचड़ में एक खिलता एवं खिलखिलाता हुआ कमल थे.
भारतीय राजनीति ने अटल जी से बहुत कुछ सिखा है, और शायद इसे अभी बहुत कुछ सीखना बाकी भी है. वर्तमान राजनितिक परिदृश्य में आज उनका जीवन और सन्देश और अत्यधिक प्रासंगिक हो चला है. जवाहरलाल नेहरु जैसे राजनेता भी अटल जी की प्रशंसा में कृपणता नही बरतते थे, राजनितिक विचारधाराओं के स्तर पर मौलिक रूप से सर्वथा भिन्न होने के बावजूद.
अटल जी का भौतिक रूप से चला जाना भारतीय राजनीति के एक स्वर्णिम अध्याय का अंत है, तम-युक्त वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिदृश्य के पटल पर एक अटल दीपक का बुझ जाना है, और यह बुझ जाना भी ऐसे समय पर जबकि इस अटल-दीप के द्वारा राष्ट्र को अवलोकित होने की सबसे ज्यादा जरुरत थी, बुझ जाना भी ऐसे समय पर जब इस दीपक का बुझना एक आशा के मिटने के समतुल्य हो गया है. और, शायद इसीलिए आज सम्पूर्ण राष्ट्र रो रहा है, और एक साथ रो रहा है. जी हाँ, वही राष्ट्र जो अभी कल तक हज़ार कारणों से बंटा हुआ था और शायद कल से फिर बंट जाए इन्ही कारणों के ऊपर, परन्तु आज एक साथ रो रहा है, और इसी आंसुओं में राष्ट्रीय चेतना का गौरव समाहित है. सम्पूर्ण राष्ट्र के आंसुओं का एकत्रित बहना ही उनके जीवन की असली जीत है, अटल जी के जीवन की अटल-जीत है. वह राष्ट्र के स्मृति पटल पर अपने जोरदार ठहाकों के बीच सदैव जीवित रहेंगे. भारतीय राजनीति के शिखर-पुरुष को सम्पूर्ण आकाश भर अंतिम प्रणाम.
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