मंजूर पश्तीन | तस्वीर साभार : Diaa Hadid/NPR

यूँ तो पाकिस्तान में कुछ अरसे से आवाम के सड़क पर उतरने कई मौकों पर खबर मिलती रही है. चागमलाई, साउथ वजीरिस्तान, पाकिस्तान. लेकिन यहाँ पिछले कुछ महीनों से जो गुस्सा अवाम का फूट रहा है लगता है पाकिस्तान पर कहर ढहा देगा. दो-तीन दशकों से भी ज्यादा पाकिस्तान की आर्मी और सेना के जुल्म के तले पिसती पश्तूनी जनता अब सड़कों पर उतर आयी है. पश्तूनों की अगुवाई कर रहे मंज़ूर पश्तीन इन दिनों पाकिस्तान में सनसनी बने हुए हैं, जमीन से जुड़े हुए इस युवा नेता ने जुल्म के खिलाफ लड़ रहे पश्तूनों की आंखों में एक नई चमक दी है. मंज़ूर पश्तीन सोशल मीडिया चार्म हैं. एक युवा नेता जो दमन और गालियां सुनकर खड़ा हुआ है, वो भी अपने दम पर. हिन्दोस्तां की तरह नहीं, यहाँ खोखले यूथ आइकॉन्स को मीडिया गढ़ता है. मंज़ूर एक सबक हैं युवाओं के लिए.

मंज़ूर पश्तीन की कहानी. एक दफा मंजूर पश्तीन का चागमलाई इलाके में जाना हुआ. पिछले दो महीने के कर्फ्यू में पाकिस्तानी सेना द्वारा यहाँ के लोगों पर बहुत ज़ुल्म हुआ था. युवक ने पश्तूनों की अधमरी स्थिति को देखते हुए कहा कि आप इसके खिलाफ आवाज़ क्यों नहीं उठाते? तब लोगो ने जवाब दिया “हम एक दुआ करतें हैं आप सिर्फ आमीन करें!”


सबने हाथ उठा लिए और कहने लगे “या अल्लाह आपने क़यामत को कहाँ छिपा रखा हैं? ऐसा क्यों नहीं होता की हम सब बर्बाद हो जाएँ. ताकि ये जो ज़िन्दगी है उससे हमें आज़ादी मिल जाए.”

कहाँ हैं चागमलाई?

चागमलाई पाकिस्तान के दक्षिण वज़ीरिस्तान में एक छोटा सा क़स्बा है जो अफगानिस्तान सीमा के बेहद करीब है. यह पाकिस्तान के संघीय शासित कबायली इलाकों (फाटा – Federal Administered Tribal Areas) में आता है.

वज़ीरिस्तान का जिक्र हमेशा से ही पाकिस्तान के सबसे अशांत इलाके के तौर पर होता है वहीं 2013 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चागमलाई को पृथ्वी का सबसे खतरनाक इलाका बता चुके हैं.

दरअसल, भारत में दहशत फैलाने के मकसद से आतंकवादियों की परवरिश के लिए पाकिस्तान चागमलाई जैसे इलाकों को प्रयोगशाला के तौर पर इस्तेमाल करता आया है.


साभार: वॉइस ऑफ़ अमेरिका न्यूज

पाकिस्तान के रिटायर्ड जनरल अब्दुल कादिर बलोच ने भी इस बात की पुष्टि करते हुए कहा था “उस वक्त बात सामने आयी कि पाकिस्तान के दफ़ा की लड़ाई हमेशा अफ़ग़ानिस्तान से लड़ी जाएगी क्योंकि अगर रुसी वहां से आगे आए तो उन्हें रोकने वाला कोई नहीं होगा. तो ये लड़ाई वहाँ छेड़ी गई और इसको सपोर्ट करने के लिए पाकिस्तान की सरजमीं को इस्तेमाल करने की जरुरत आन पड़ी और पाकिस्तानी सरजमीं में वो जगह ‘दक्षिण वज़ीरिस्तान’ और ‘उत्तर वजीरिस्तान’ चुनी गई. इनको बतौर एक नर्सरी के इस्तेमाल किया गया. दहशत-गर्दी की नर्सरी के लिए.”

दहशत-गर्दी की नर्सरी यानि पाकिस्तान ने ‘दक्षिण वज़ीरिस्तान’ और ‘उत्तर वजीरिस्तान’ में चागमलाई जैसे इलाकों का गलत उपयोग करते हुए आतंकवादियों को ट्रैंनिंग देना शुरू किया. यहाँ पूरी दुनिया से मुजाहिद्दीन लाए गए. तालिबान को हथियार देकर ताकतवर बनाया गया. हक्कानी नेटवर्क व लादेन जैसो को हीरो बनाया गया. लेकिन भारत की बर्बादी के चक्कर में पाकिस्तान ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार दी.

पाकिस्तानी सेना और सरकार द्वारा तालिबान जैसे आतंकवादी संगठनों को जमीनी और आर्थिक मदद देने के कारण इन संगठनों ने दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में अपनी जड़ें जमा लीं और पश्तूनों को दमन कर धीरे धीरे अपना वर्चस्व स्थापित करना शुरू किया. फिर धीरे धीरे अपना असली रंग दिखाना भी शुरू कर दिया.

उन्होंने सबसे पहले शरिया कानून के तहत महिलाओं पर कई तरह की कड़ी पाबंदियां लगा दी. लड़कियों के लिए सभी स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दरवाजे बंद कर दिए. उनके लिए अनिवार्य तौर पर बुर्का पहनने का फरमान जारी कर दिया. महिलाओं को नौकरी करने की इजाजत नहीं दी गई. साथ ही किसी पुरुष रिश्तेदार के बिना घर से निकलने पर महिला का बहिष्कार किया जाने लगा. और तो और पुरुष डॉक्टर्स द्वारा महिला रोगी के चेकअप पर भी पाबंदी लगा दी गई.

इसके अलावा पुरुषों के लिए बढ़ी हुई दाढ़ी का आदेश जारी कर दिया. टीवी, म्यूजिक, सिनेमा पर भी पाबंदी लगा दी गई.

यदि इनमे से किसी भी आदेश का उल्लंघन होता तो पुरुष या महिला में भेद किए बगैर उनको निर्दयता से पीटा और मारा जाने लगा. इस वजह से महिलाओं में आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़ने लगे.

वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के अटैक के बाद

11 सितम्बर 2001 के हमले के बाद एक घायल शेर की माफिक अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में दाखिल हुआ और उसने चुन चुन कर दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के पश्तूनी इलाकों में जमे आतंकवादी संगठनों को निशाना बनाना शुरू किया जिसमे आजतक गेहूँ की तरह पैदा की गयी आतंकवादियों की फसल के साथ-साथ निर्दोष पश्तून भी घुन की तरह पीसते आ रहें हैं!

यहाँ के पश्तूनों को सबसे ज्यादा मदद की उम्मीद पाकिस्तानी आर्मी से थी लेकिन अमेरिका के दबाव में आर्मी ने तो मानो सभी को पीछे छोड़ते हुए तमाम पश्तूनों को ही अपना दुश्मन मान लिया है. पाकिस्तानी आर्मी अमेरिका को खुश करने के लिए हररोज निर्दोष पश्तूनों को मौत के घाट उतार रही है!

आज आलम कुछ यूँ है कि पाकिस्तानी आर्मी, अमरीका और आतंकवादी संगठन सब अपने अपने हितों के लिए अपने-अपने तरीको से इन कबायली इलाकों का इस्तेमाल कर रहें हैं. आज यहाँ एक भी दिन कोरा नहीं जाता कि जब किसी निर्दोष पश्तून की जान न जाती हो!

चूँकि आम-पश्तूनी अब पाकिस्तानी हुकूमत और आर्मी के खिलाफ हो गए हैं इसलिए पश्तूनियों के गायब होने की खबरे यहाँ रोज की बात हो गई हैं! गायब हो रहे पश्तूनियों के साथ क्या हो रहा है, वे कहाँ हैं, जिन्दा है भी या नहीं? सब महज कुछ सवाल बन कर ही रह गए है!

निर्दोष पश्तूनी यदि पाकिस्तानी आर्मी से बच निकले तो आतंकवादी संगठन उसको निशाना बना लेते हैं और यदि दोनों से बच निकले तो आए दिन अमरीकी ड्रोन हमलों में भी जान गँवानी पड़ती है!

कुल मिलाकर, जीतेजी कबायली इलाकों को जहन्नुम बनाने का श्रेय तो पाकिस्तान को ही जाता है!


मंजूर पश्तीन की तहरीक से पश्तूनों में अपने हक़ के लिए लड़ने के लिए हौंसला आया है | तस्वीर साभार : Abdul Majeed/AFP/Getty Images

मंजूर पश्तीन: सीमान्त गाँधी 2.0, पश्तूनी चे ग्वेरा . . .

ऐसा नहीं है कि पश्तूनों पर जुल्म और ज्यादती का आलम मंजूर पश्तीन उस दिन पहली बार चागमलाई में देख रहे थे लेकिन वहां के लोगो की क़यामत की दुआं पर आमीन फरमाने की उस विनती ने मंजूर पश्तीन के ज़हन पर गहरा असर डाला.

1992 की एक रोज मंजूर पश्तीन का जन्म पाकिस्तान के दक्षिणी वज़ीरिस्तान में सेर्वेकाई नामक पश्तून कस्बे में हुआ था. उनके पिता अब्दुल वादूद मशूद उनके गांव की ही स्कूल में शिक्षक थे. बचपन में एक ओर मंजूर का परिवार बेहद ही तंगहाली और दीन हालातों से गुज़र रहा था वहीं पाकिस्तान आर्मी के विभिन्न ऑपरेशन्स में उनके परिवार को 4 बार अपने घर से खदेड़ दिया गया. यहीं से मंजूर पश्तीन की जंग की शुरुआत होती है.

2011 में जब उन्होंने गोमल यूनिवर्सिटी डेरा इस्माईल खान में दाखिला लिया तो उनको महसूस हुआ कि पूरे कबायली इलाकों में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध के नाम पर पाकिस्तानी आर्मी – पाकिस्तानी हुकूमत ने आम-पश्तूनियो की जिंदगी तबाह कर दी है. यहीं से निरंकुश शासन, ज़ुल्म और अत्याचार के खिलाफ मंजूर के अंदर गुस्सा उबल उठा.

2014 में मंजूर यूनिवर्सिटी की एक ट्राइबल स्टूडेंट संगठन में शामिल हुए और उसके अध्यक्ष चुने गए. उस दौरान सोशल मीडिया पर उनके इलाके की महिलाओं के साथ बदसलूकी का एक विडियो वायरल हुआ जिसके खिलाफ मंजूर पश्तीन और उनके आठ साथियों ने डेरा इस्माईल खान में एक बड़े विरोध-प्रदर्शन का आयोजन किया.


पश्तून तहफ्फुज मूवमेंट(पीटीएम) के तहत पश्तून नकीबुल्लाह महसूद को ‘फर्जी एनकाउंटर’ में मार देने के विरोध में उठ खड़े हुए | तस्वीर साभार: Rizwan Tabassum/AFP/Getty Images

इसके बाद मंजूर पश्तीन ने 2014 में पश्तून तहफ्फुज मूवमेंट(पीटीएम) का गठन किया. इस मूवमेंट के आंदोलन में सबसे बड़ा मोड़ तब आया जब कराची में वज़ीरिस्तान के एक कबायली युवा नकीबुल्लाह महसूद को पुलिस ने बेवजह ‘फर्जी एनकाउंटर’ में मार दिया. नकीबुल्लाह महसूद की हत्या के विरोध में पश्तूनियो ने इस्लामाबाद में धरना दिया. शुरुआत में इस मूवमेंट के साथ काफी कम लोग जुड़े, लेकिन वक्त के साथ पीटीएम मजबूती के साथ खड़ा होता गया और लोग इससे जुड़ते गए. धीरे-धीरे पीटीएम के अंतर्गत पाकिस्तान में पश्तूनों की कई विरोध रैलियां निकलीं, जिनमें उन्होंने पाकिस्तानी सेना के खिलाफ बिगुल बजाया. नतीजन इस मूवमेंट से मंजूर पश्तीन सबसे बड़े नाम के रूप में उभर कर आए.

आप इसे मंजूर पश्तीन की लोकप्रियता ही समझिए कि कल तक जहाँ पश्तूनी चूं तक नहीं कर पा रहे थे वहाँ आज खैबर पख्तूनख्वां और वजीरिस्तान में जगह-जगह मंजूर पश्तीन को सुनने के लिए भीड़ इकट्ठा होनी शुरू हो गई है और आजादी के नारे लगाए जा रहें हैं!

इसी साल अप्रैल महीने में पश्तून समुदाय ने लापता लोगों की रिहाई की मांग करते हुए, पश्तून ताहुफुज आंदोलन (पीटीएम) के तहत पेशावर में एक विशाल रैली निकाली थी जिसमे पश्तूनों की स्वतंत्रता की माँग उठ कर सामने आई. इस रैली में शरीक नेताओं का दावा है कि पिछले दशक में 32,000 पश्तून फाटा से गायब हो गए हैं.

पाकिस्तानी हुकूमत इस मूमेंट को कुचलने के लिए बेहद तत्पर सी नज़र आ रही है क्योंकि जहां-जहां पश्तून तहफ्फुज मूवमेंट के जलसे होने होते हैं वहां पहले रुकावटें खड़ी की जाती हैं, फिर हटा ली जाती हैं. यहाँ तक कि मीडिया को भी सख्त हिदायत दी गई है कि वो मंजूर पश्तीन के जलसों की रिपोर्टिंग न करे. बहरहाल, मात्र सोशल मीडिया के जरिए मंजूर पश्तीन अपनी बातो को लोगों तक पहुंचा रहे हैं.

पाकिस्तानी आर्मी की ज्यादती को लेकर एक इंटरव्यू में मंजूर पश्तीन ने बताया कि “कबायली इलाकों (फाटा – Federal administered tribal areas) में हर 2 -3 किलोमीटर पर एक चेक पोस्ट आता है. जब मैं अपने घर वजीरिस्तान जाता हूँ तो 40 किलोमीटर में 17 चेक-पोस्टो से गुज़र कर जाता हूँ. इन चेक-पोस्टों के अंदर भी जब कभी कोई अनहोनी होती है तो सिक्योरिटी फोर्सेज वाले आ जाते है और पूरे गांव के मर्द-ख्वातीनों सबको घरों से निकाल कर छानबीन करते हैं और इस तरह के अल्फ़ाज़ होते हैं कि ‘आप लोगो ने धमाका क्यों किया? आप लोग इंडिया के साथ क्यों मिले हुए हो.’ आप उस दर्द को महसूस नहीं कर सकते क्यूँकि चेक-पोस्ट क्या होता है अभी तक आपने देखा नहीं हैं. वहां हमको मारना-पीटना, गंदी गालियाँ देना बहुत ही आम बात है!”

पश्तून तहफ्फुज मूवमेंट की मांगें 

मंजूर पश्तीन और उनके मूवमेंट की सबसे बड़ी मांग है कि नकीबुल्लाह महसूद की हत्या के दोषी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट एसएसपी राव अनवार की गिरफ्तारी जल्द से जल्द हो. पिछले 10 वर्ष में चरमपंथ के खिलाफ जंग के दौरान जो सैकड़ों पश्तूनी गायब हुए हैं उन्हें अदालत में पेश किया जाए. अफगान सीमा से लगे कबायली इलाकों में अंग्रेजों के दौर का काला कानून एफसीआर खत्म कर वहां भी पाकिस्तानी संविधान लागू कर वजीरिस्तान और दूसरे कबायली इलाकों को वही बुनियादी हक दिए जाएं जो लाहौर, कराची और इस्लामाबाद के नागरिकों को हासिल हैं. साथ ही तालिबान के खिलाफ फौजी ऑपरेशन में आम लोगों के जो घर और कारोबार तबाह हुए उनका मुआवजा दिया जाए और इन इलाकों में चेक पोस्टों पर वहां के लोगों से अच्छा सलूक किया जाए.

हत्या की आशंका

बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में मंजूर पश्तीन ने बताया था कि “हमारे इलाकों की अमन की बात करने वाले हमारे नेताओं को ना-मालूम अपराध में मार दिया जाता है. आर्मी ऑपरेशन्स में हम सबको दहशतगर्द समझा जा रहा है. स्कूल, कॉलेज हर जगह पर हमें ऐसे ट्रीट किया जा रहा है जैसे हम दहशतगर्द हैं. बस ये गिला-शिकवा पहले हम ज्यादा नहीं करते थे क्योंकि ये सब हमारे नेता करते थे और फिर उन्हें शूट कर दिया जाता था. यहाँ तक कि हमारे एम्.एन.ए मौलाना मेराज अपने घर आते हैं फिर 4-5 दिन में ना-मालूम किस अपराध में उन्हें शूट कर देते हैं. फिर हम सबको पता चला कि यहाँ अपने हक़ की बात करना, वतन की – अमन की बात करना, यहाँ थोड़ा इज्जत मांगना, वो यहाँ अपने आप को मार देने के बराबर है!”

मंजूर पश्तीन के इस कथन और उनके काम को देखते हुए इसमें कोई शक नहीं की पाकिस्तानी आर्मी द्वारा उनकी हत्या की साजिश भी रची जा सकती है!

सीमांत गांधी


बाचा खान उर्फ़ अब्दुल गफ्फार खान ‘सीमान्त गाँधी’

आज पाकिस्तानी आर्मी को मंजूर पश्तीन के मूवमेंट से इतनी खीझ नहीं होती होगी जितनी मंजूर को “सीमांत गांधी” कहे जाने पर हो रही होगी. दरअसल मंजूर, अब्दुल गफ्फार उर्फ़ बाचा खान को अपना आदर्श मानते है जो गांधीजी को अपना गुरु मानते थे और उनके अहिंसा-वादी आदर्शो के कट्टर अनुयायी थे. उस समय उन्होंने डट कर ‘मुस्लिम लीग’ द्वारा भारत के विभाजन की मांग का विरोध किया और जब अंततः कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लिया तब वे बहुत निराश हुए और कहा, ‘आप लोगों ने हमें भेड़ियों के सामने फ़ेंक दिया.”

खैबर पख्तूनख्वा के पाकिस्तान में विलय हो जाने के बाद भी ख़ान आजीवन पाकिस्तान में रह कर पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सीमान्त जिलों को मिलाकर एक स्वतन्त्र पख्तून देश ‘पख्तूनिस्तान’ की मांग करते रहे.


अपने एक इंटरव्यू में मंजूर पश्तीन ने बाचा खान के ही सन्देश को याद करते हुए कहा था कि ‘हम हिंसा में यकीन नहीं करते हैं, न तो हम आक्रामक भाषा का इस्तेमाल करते हैं और न ही हिंसा का हमारा इरादा है. अब यह सरकार पर है कि वह हमें अपने शांतिपूर्ण प्रदर्शन के हक का इस्तेमाल करने देती है या हमारे खिलाफ हिंसक तरीका अपनाती है.’

आज से पहले पाकिस्तान को लग रहा था कि उसने बाचा खान के आंदोलनों को, उनकी मांगों को सिरे से कुचल दिया है लेकिन मंजूर पश्तीन ने आज इनमें एक नई जान फूंक दी है. साथ ही, हमेशा से पाकिस्तान महात्मा गाँधी को एक विलन के तौर पर पेश करता आया है लेकिन आज जब एक पाकिस्तानी मंजूर पश्तीन को लोग ‘सीमांत गांधी’ कह रहें हैं तब उन पर क्या बीत रही होगी ये हम सब अच्छी तरह से समझ सकतें हैं.

बीबीसी का ये इंटरव्यू देखिये: 



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