कॉर्पोरेट में 10 से 7 के बीच आरामदायक कुर्सी और ए.सी में काम करने वाला कर्मचारी अक्सर शिकायत करता हैं कि “उसके पास सरकारी नौकरी नहीं है. उसमें भी पुलिस की रसूख वाली नौकरी नहीं है जिसमें उतना कुछ काम नहीं करना है और तनख़्वाह के साथ-साथ ऊपरी कमाई भी अच्छी खासी मिल जाती है. काश ऐसी नौकरी होती तो कॉर्पोरेट की चार दीवारों, सप्ताह में मात्र एक छुट्टी और वही मनहूस चेहरों को देखने की नौबत नहीं आती.”
आनाकानी मत करियेगा क्योंकि मैं भी इसी कॉर्पोरेट का हिस्सा हूँ और अपने 5 साल के करियर में इतना तो मैं कन्फर्म कर ही चुका हूँ. लेकिन बीते दिनों की कुछ खबरों और कुछ अपनों की आपबीती के बाद पुलिस की इस रौब वाली नौकरी से मेरा मोह उठ गया है. यूँ मत सोचिएगा कि इसका कारण है कि मैं मेहनत नहीं करना चाहता या अपने शरीर को कष्ट नहीं देना चाहता लेकिन फिर वही बीते दिनों की कुछ खबरों और कुछ अपनों की आपबीती सुन के मुझे इस तंत्र से भरोसा उठ गया है. आम जनता के साथ न्याय करने और उनको हक दिलाने जैसे मुद्दों की शपथ लेने से पुलिस-कर्मियों के साथ ट्रेनिंग से ही घोर अन्याय होता रहा है और खुद के ही हक़ की बात करने पर आला अफसरों द्वारा प्रताड़ित किया जाता रहा है. हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि ट्रेनिंग देने वाले ये अधिकारी अपने आप को मानवता, विनम्रता और दया का दुश्मन बना बैठे हैं. मानों ट्रेनिंग सेंटर को उन्होंने ‘जर्मनी’ समझ लिया है और खुद को ‘हिटलर’. वे जिन असुविधाओं और यातनाओं से गुजरे हैं उसका बदला इन ट्रेनी पुलिस-कर्मियों से ले रहें हैं! और माने भी क्यों ना? बहरहाल ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं जहाँ इन अफसरों की मनमानी को रोका जा सके! कम से कम ट्रेनिंग किस तरह दी जा रही है, नए पुलिस कर्मियों के हितों का ख्याल रखा जा रहा हैं या नहीं, इस बात को कहीं सुनिश्चित किया जा सके!
पिछले साल पुलिस में कार्यरत महिलाओं के बीच किए गए एक सर्वे में पाया गया कि उन्हें टॉयलेट जैसी मूलभूत सुविधा के अभाव, असुविधाजनक ड्यूटी तथा निजता न होने जैसे मुद्दों का सामना करना पड़ रहा है. ड्यूटी के दौरान महिला पुलिस-कर्मी कई घंटों तक पानी नहीं पीती. वे ऐसा इसलिए करती हैं ताकि उन्हें बार-बार टॉयलेट न जाना पड़े. महिलाओं को जो जैकेट और जूते मुहैया कराएं जाते हैं वे इतने कठोर व कसे हुए होते हैं कि सांस लेने में और चलने में दिक्कत होती है. ऐसा इसलिए है क्योंकि ये चीज़े पुरुषों के शरीर के अनुसार बनाई जाती हैं.
यही नहीं, महिला पुलिस-कर्मियों को लैंगिक भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है. वरिष्ठ अधिकारियों या सहयोगी कर्मियों के हाथों यौन शोषण की खबरें भी जब-तब आती रहती हैं. ऐसी खबरें पुलिस सेवा का सपना देखने वाली हर महिला के उत्साह को ठंडा कर देती है.
इसी साल दिल्ली पुलिस की 24 महिला कर्मियों ने एक इंस्पेक्टर पर काम के दौरान यौन शोषण करने की शिकायत की थी.
दो साल पहले, मार्च 2016 में उत्तरप्रदेश की महिला पुलिसकर्मी रुपेश भारती के साथ पुलिस इंस्पेक्टर की बदसलूकी वाला वीडियो भी खूब वायरल हुआ था. इस वीडियो ने पुलिस के आला अधिकारियों की नीचता को सबके सामने उजागर कर दिया था. रुपेश भारती की शिकायत थी कि, “इंस्पेक्टर ने उसके बच्चों के लिए खाना बनाने को कहा और रुपेश भारती द्वारा मना करने पर इंस्पेक्टर ने उसी के खिलाफ रपट लिख दी और सस्पेंड कर दिया. रुपेश भारती ने इस घटना को लेकर सी.ओ. साहब से बात की जिसके बाद नौकरी में 4 दिन बाद उसकी बहाली हुई. इसके बाद वापसी के दिन ही इंस्पेक्टर ने रुपेश भारती को दुबारा पास बुलाया. तब इंस्पेक्टर सिगरेट पी रहा था. रुपेश भारती को सामने देख इंस्पेक्टर ने सिगरेट का धुँआ उसके मुँह पर निकाल दिया और टेबल पर पड़े काजू उठा कर जबरजस्ती उसके मुँह में ठूंस दिए. साथ ही जाती-सूचक शब्द भी कहे.”
2011 में कोल्हापुर महिला पुलिस ट्रेनिंग सेंटर के सेक्स स्कैंडल ने पूरे महाराष्ट्र में हड़कंप मचा दिया था. इस ट्रेंनिंग सेंटर में युवतियों के साथ यौन शोषण का आरोप लगा था. इस मामले में एक प्रशिक्षक को गिरफ्तार किया गया था, जबकि उसका आरोप था कि युवतियों से बलात्कार की वारदात में दूसरे आला अफसर भी शामिल थे. इस मामले को दबाने की पूरी कोशिशें हुई मगर अंततः गृहमंत्रालय को जांच के आदेश देने ही पड़े. इस स्कैंडल का खुलासा तब हुआ, जब एक ट्रेनी महिला कांस्टेबल ने चिठ्ठी के जरिए आपबीती आला अफसरों को बताई. चिट्ठी में पीड़ित महिला ने खुलासा किया था कि ट्रेनिंग देने के नाम पर कोल्हापुर पुलिस ट्रेनिंग स्कूल में ट्रेनी महिला कांस्टेबलों के साथ बलात्कार किया जा रहा था. एक-दो नहीं दर्जनों लड़कियां इसका शिकार बन चुकी थीं. ट्रेनिंग स्कूल में यह गोरखधंधा संगठित अपराध की तरह चल रहा था और इस सेक्स स्कैंडल में ट्रेनिंग स्कूल के बड़े अधिकारी भी शामिल थे. बाद में मेडिकल जांच में भी युवतियों के साथ बलात्कार की बात साफ हो गई.
2016 में ऐसी ही खबर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के चांखपुरी पुलिस ट्रेनिंग एकेडमी से भी आई थी जहाँ ट्रेनर महिला अफसरों को उनके पीरियड के बारे में रजिस्टर में लिखने को कहता था और उन दिनों में अलग लाइन में खड़ा रहने पर मजबूर करता था. इसके अलावा वह स्विमिंग पूल में अभ्यास कर रही ट्रेनी महिला पुलिस-कर्मियों को गिनती के बहाने बाहर बुला लेता था और परेड के दौरान बाल खींचने तक से परहेज नहीं करता था.
दूसरे राज्यों से ऐसी खबरें सुनने के बाद मन में दुःख तो था लेकिन बेफिक्र था कि गुजरात पुलिस में ऐसी स्थिति नहीं होगी और देश का विकास में गुजरात मॉडल के कसीदे पढ़े जाते हैं. लेकिन पिछले वर्ष मुख्यमंत्री विजय रुपाणी ने जिन 18,000 महिला पुलिस-कर्मियों को अहमदाबाद रिवरफ्रंट से एक भव्य समारोह के दौरान शपथ ग्रहण करवाई थी, उन्हीं के साथ हुई कुछ ऐसी ही घटनाओं ने गुजरात पुलिस के तंत्र पर भी सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं. ऐसा हो सकता है और होता ही है कि डर के मारे लड़कियाँ शिकायत नहीं करतीं या शिकायत करें तो भी बात को सेंटर में ही दबा दिया जाता हैं लेकिन नाम न बताने की शर्त पर thearticle.in को गुजरात पुलिस अकादमी, कराई, गांधीनगर के अधीन चल रहें एक सबट्रेनिंग सेंटर, पालनपुर से अपनी ट्रेनिंग ख़त्म करने वाली कुछ महिला कॉन्स्टेबलों ने कुछ ऐसी बातें बताई जिनको गुजरात के पुलिसिया तंत्र को क्यूँ ना कटघरे में खड़ा रखने में मजबूर हों ! गुजरात के बनासकांठा डिस्ट्रिक्ट के पालनपुर में स्थित इस ट्रेनिंग सेंटर पर गुजरात पुलिस में नियुक्ति से पहले कांस्टेबल समेत अन्य सहयोगी कार्मिक स्तर के अप्रेंटिस को ट्रेनिंग दी जाती है.
जमीनी हालत से रूबरू करवाने के पहले हमने गुजरात पुलिस को एक आर.टी.आई में इस विषय से जुड़े कुछ सवाल पूछे. जिनके जबाबों को पढ़कर लगता हैं कि काश “इस कागज़ पर लिखी बातों पर पालन भी हो पाता!” प्रावधानों में निहित नियमों के हवाले से सामान्यीकरण कर जबाब दे दिए गए लेकिन हक़ीकत इसके बिलकुल उलट.
मांगी गई जानकारियों में बहुत सी जानकारियाँ अतिरिक्त रकम की भरपाई करने पर दस्तावेज उपलब्ध कराये जायेंगे जाएंगी ऐसा लिखा है लेकिन जो प्राप्त हुई हैं उनमे सबसे बड़ी चौंकाने वाली बात है कि राज्य का पुलिस विभाग अभी तक 100 कर्मियों के बीच कितने शौचालाय होने चाहिए इसकी स्थिति को स्पष्ट नहीं कर सका है. आनन-फानन में जबाब दिया गया है कि ट्रेनी महिला-कर्मियों के आवास पर कुल 34 शौचालय एवं उतने ही बाथरूम उपलब्ध हैं लेकिन ये नहीं बताया गया कि आवास पर रह रही लड़कियों की संख्या कितनी हैं! खैर हमें इस बारे में कोई आंकड़ा मालूम भी नहीं लेकिन बात जब गुजरात की राजधानी के अधीन चल रहे ट्रेनिंग सेंटर की है तो कम से कम 1000 प्रशिक्षुओं के प्रशिक्षण की क्षमता रखता है. यदि ऐसा है तो करीब 30 लड़कियों के बीच मात्र 1 शौचालय की व्यवस्था थी.
नाम न बताने की शर्त पर हालिया ट्रेनिंग ले चुकी महिला कॉन्स्टेबलों ने हमें बताया कि –
“उनके सेंटर में 70 लड़कियों के बीच मात्र 2 ही शौचालाय थे जिसमें भी आये दिन नल और पानी की समस्या रहती थी. शौचालय की कमीं के कारण वहां रहने वाली लड़कियों को बहुत दिक्कत होती थी. सुबह-सुबह लंबी लाइन लग जाती थी. नहाने को बाथरूम के लिए भी वही समस्या होने की वजह से कुछ लड़कियों ने तो अपनी निजता से समझौता करते हुए बाहर खुले में ही नहाना शुरू कर दिया था.”
मैं सोचता हूँ कि ऐसी व्यवस्था के बीच ट्रेनिंग सेंटर लड़कियां किस प्रकार अनुशासन और समयनिष्ठता का पालन कर रहीं होगी यह अपने आप में खोजी पत्रकारिता का विषय हो सकता है!
खाने की गुणवत्ता के बारे में पूछे जाने पर ट्रेनी कांस्टेबल बताती है कि, “वहाँ खाने की गुणवत्ता एकदम निचले स्तर की थी. कभी कभी तो दाल, सब्जी मे से इल्ली निकलती थी.”
आर.टी.आई में खाने की गुणवत्ता को लेकर पूछे गए सवाल पर साफ तौर पर लिखा गया है कि, “सेंटर के भोजनालय में ट्रेन कर्मियों में से 11 से 13 सदस्यों की कमेटी बनाई जाती है जो प्रति माह मीटिंग करती हैं जिसमे भोजन का मेनू तैयार किया जाता है और यही सदस्य हर रोज भोजन की गुणवत्ता की जाँच करतें हैं. साथ ही आला अफसर भी हर रोज भोजनालय का दौरा करते हैं और भोजन की गुणवत्ता की जाँच करते हैं.” मुझे ताज्जुब होता है कि इस प्रकार की व्यवस्था होते हुए भी कैसे दाल, सब्जी मे से इल्ली निकलती है! यहां आपको बता दें कि प्रत्येक ट्रेनी के भोजन का पूरा खर्चा उसी से वसूला जाता हैं फिर भी खाने की गुणवत्ता में इस प्रकार की लापरवाही किसी बड़े भ्रष्टाचार की बू छोड़ती हैं.
इसके अलावा एक कमरे में कैपेसिटी से अधिक लड़कियों को ठूंसे जाने की बात का तो अब कोई मुद्दा ही नहीं रहा लगता है!

पीरियड के दिनों को लेकर पूछे गए सवाल पर आर.टी.आई का जवाब कहता है कि, “पीरियड के दौरान ट्रेनी महिलाकर्मी द्वारा हो सके उतनी हलकी कसरत करवाई जाती हैं. लेकिन महिला कॉन्स्टेबलों ने हमें बताया कि –
“लड़कियां जब पीरियड में होती हैं तब सब कुछ जानते और समझते हुए भी लड़कियों के मुँह से ज़बरदस्ती वे पीरियड में हैं इस बात को उगलवाया जाता था और मुश्किल होते हुए भी इन दिनों में भारी कसरते करवाई जाती थीं. साथ ही महिला कर्मियों के साथ अपशब्दों और गाली-गलौज के साथ बात करना तो सामान्य सा लगने लगा था क्योंकि इसका कोई विकल्प भी नहीं. कभी कभी तो ट्रेनिंग के समय महिला कर्मियों को छड़ी से पीटा भी जाता था. आये दिन किसी न किसी कारण से जबरन प्रताड़ित किया जाता था जिसमे कईं बार लड़कियां बेहोश तक हो जाती थीं. बेहोशी का आलम देखने के बावजूद आला अधिकारी इसकी सुध नहीं लेते और कहते फिरते हैं कि ‘ट्रेनिंग के दौरान आप मर भी गए तो मेरा बाल तक बांका नहीं होगा!’ वहां कितनी ही लड़कियां अपने छोटे बच्चों को छोड़ कर आईं थीं लेकिन ढाई – तीन महीनों तक एक भी छुट्टी नहीं दी जाती थी. तंत्र की तरफ से छुट्टी हो न हो लेकिन अपने हक़ की तो मिलनी चाहिए थी.”
यह सब तो ठीक लेकिन एक लड़की रात में सोते समय क्या पहने, क्या ना पहले इस पर भी तानाशाही चलती थी! आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन एक बार लड़कियों को रात के समय भी वर्दी का पेंट पहनकर सोने की अड़वाइजरी जारी कर दी गई थी. और तो और रोज रात लड़कियों के हॉस्टल में पुरुष अधिकारी झाँकने आते थे कि लड़कियाँ वर्दी के पेंट में सो रही हैं या किसी और ड्रेस में! मेरे हिसाब से गुजरात पुलिस विभाग को इस से शर्मसार करने वाली बात कोई नहीं होगी!
अब जरा आप ही सोचिये कि इस प्रकार की आपबीती सुनकर कौन भला पुलिस सेवा का सपना देख सकता हैं. लेकिन हुक्मरानों को मालूम हैं कि देश में बेरोजगारी कितनी हैं. इसलिए व्यवस्था सुधरें ना सुधरें, आला अधिकारी सुधरें ना सुधरें, खाने की गुणवत्ता सुधरें ना सुधरें, शौचालय बने ना बने, उन्हें तो हर बार की तरह बार-बार ट्रेनीज मिल ही जाएंगे!
वैसे महिला कॉन्स्टेबलों ने बताया कि जूनागढ़ और गांधीनगर जैसे ट्रेनिंग सेंटर्स में स्थितियां इतनी ख़राब नहीं है लेकिन फिर भी सुधार की आवश्कयता सभी जगह है.
बहरहाल, गुजरात पुलिस की एक टैगलाइन है – “પોલીસ પ્રજા નો મિત્ર છે” यानि पुलिस जनता का मित्र है लेकिन मौजूदा परिस्थितियों को देखें तो पुलिस, पुलिस का ही मित्र नहीं है.
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