जनवरी, साल 2015 में इस्लामिक कट्टरवाद पर चोट करते हुए कार्टून छापने वाली फ्रेंच व्यंग पत्रिका चार्ली ऐब्दो “Charlie Hebdo” के पेरिस स्थित मुख्यालय में अलकायदा से सम्बन्ध रखने वाले दो बन्दूकधारी आतंकवादियों ने घुसकर स्टाफ के तेरह लोगों समेत चौदह को गोलियों से भून डाला. इस जघन्य घटना की विश्वव्यापी निंदा हुई. तब पत्रकारिता के गोल्ड स्टैण्डर्ड माने जाने वाले अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकार संपादकों के सामने ये कसौटी भरा सवाल आ खड़ा हुआ कि क्या यहाँ भारत में, वे अपने चैनलों और अखबारों में चार्ली ऐब्दो के कार्टून्स रिप्रोड्यूस कर सकते हैं? मानों सबको सांप सूंघ गया. अभिव्यक्ति की आज़ादी आखिर आज़ादी है, चाहे वो भारत में हो या फ्रांस में.
हाँ, एक कोशिश हुई थी. मुंबई के उर्दू अखबार ने ‘चार्ली ऐब्दो’ के कार्टून्स को छाप दिया, लेकिन क्या हश्र हुआ. मजहब के ठेकेदारों ने अख़बार चलाने वाली महिला संपादक शीरीन दलवी के ऑफिस में तोड़फोड़ की और अख़बार को बंद करा दिया. उनको गिरफ्तार कराया गया और कई केसेज दायर कर ने अदालत के चक्करों में फंसा दिया जिनकी तारीखें आज भी जारी हैं. बमुश्किल वे आज जमानत पर बाहर हैं. पत्रकारों के हितों की रक्षा करने वाले संपादक और संस्थाएं कोई उनकी मदद के लिए आगे नहीं आया. अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ये तमाचा है जिसका दर्द आज भी ताज़ा ज़ख्म जैसा ही है. अभिव्यक्ति की आजादी कहने को पूरे भारत में सभी को है पर क्या ये सच है? अभिव्यक्ति की आजादी भी अब कुछ ही लोगों की बकैती बनकर रह गयी है.
क्या ईश-निंदा के कानूनी पैंतरों की आड़ में सच से परहेज किया जा किया जा सकता है? उसे छपने या फिर बताने से रोका जा सकता है? हाँ, मुमकिन है. ऐसा भारत में पहले भी हुआ है, हम बताते हैं एक वाकया ऐसा. एक भैरंट किताब के बारे में जिसे हिंदुस्तान में बैन होने वाली किताबों की फेरहिस्त में पहला ख़िताब मिला. नाम तो सुना होगा “रंगीला रसूल” का? वो किताब जो आजादी से पहले भी भारत में छपी और उसको प्रतिबंधित भी कर दिया गया. प्रतिबंधित होने की वजह भी यही रही कि बस किसी ने खरा सच बोलने की हिम्मत की. 1920 के दशक में आई इस किताब में इस्लामिक इतिहास को रखने का प्रयास किया पर उसके जवाब में उसे मिला प्रतिबन्ध और इसी तरह ये पुस्तक भारत की पहली प्रतिबंधित पुस्तक बन गयी? लेकिन ऐसा क्या था इस “रंगीला रसूल” में? किसने छापी और लिखी किसने? इतिहास की तरह ही सही, पर जानना बहुत रोचक होगा.
1927 में लाहौर, पंजाब उस वक़्त भारत ही था, जब इस किताब ने जन्म लिया था. मुस्लिम कट्टरपंथियों ने माँ सीता का अपमान करते हुए एक पोस्टर छापा था. उनके जबाब में आर्यसमाज से सम्बन्ध रखने वाले महाशय राजपाल नाम के इस लेखक ने अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी को आज़माना चाहा जिसके बदले उन्हें मौत मिली. पूरे भारत पर ब्रिटिश राज था, लेकिन सियासी मुस्लिमों के मन में पाकिस्तान का ख्वाब आने लगा था. इस किताब में ऐसा कुछ भी ओफेंसिव नहीं था, बस मुहम्मद साहब की जीवनी को सम्मान जनक शब्दों में एक व्यंग के रूप में लिखा गया था. कट्टरपंथी मुल्ले-मौलवी इतने आग बबूला हो उठे कि बस राजपाल महाशय गर्दन सर से उतारकर कर रख दें. लेकिन मजहबी उन्मांद लाहौर की हवाओं में ही कुछ ऐसा फ़ैल गया था कि हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों को नाम मिलने लगा था. उस समय किसी को नहीं पता था कि ये एक किताब भारत के टुकड़े करने में इतना सघन मुद्दा बन कर सामने आएगी. इस किस्से का प्रभाव इतना था कि तुष्टिकरण के लिए महात्मा गाँधी को भी बयान देना ही पड़ा, उन्होंने कहा कि, “एक साधारण तुच्छ पुस्तक-विक्रेता ने कुछ पैसे बनाने के लिए इस्लाम के पैग़म्बर की निन्दा की है, इसका प्रतिकार होना चाहिये” महाशय राजपाल को तो गिरफ्तार कर ही लिया था, पर ये मुद्दा बहुत लम्बा चला. लाहौर की अदालत ने आखिर में फैसला सुनाया और 1927 में 6 माह की सश्रम कारावासी सज़ा सुना दी, पर जब मामला लाहौर हाई कोर्ट में गया तो न्यायाधीश दलीप सिंह ने कहा कि –
“the nature of the act, namely whether it is an offence or not, cannot be determined by the reaction of the particular class.”
इसके बाद अंग्रेजो के बनाये भारतीय कानून में एक बड़ा बदलाव लाना पड़ा जो आज भी बदस्तूर जारी है. आईपीसी की धारा 295 ए में इस नियम का संशोधन किया गया और इसकी सीमाएं निर्धारित की गयी. इसी घटना के चलते इसका निर्माण किया गया.
इतना सब हो गया पर ये सब यहीं नहीं ख़त्म हुआ. जब कानून से बात नहीं बनी तो कुछ तथाकथित समझदारों ने दूसरा तरीका अपना लिया और महाशय राजपाल को चाकू से हमला कर के मार दिया गया. उस समय दिल्ली के प्रमुख मौलाना मोहम्मद अली थे. उन्होंने 1 जुलाई 1927 को ही सभा बुलाई और वहां कहा कि, “काफ़िर राजपाल बच नहीं सकता”, और सीधा कानून को निशाना बनाते हुए कहा कि, “कानून नहीं चाहता कि हम शांतिप्रिय तरीके से रहें, सरकार ही ऐसा चाहती है कि मुसलमान कानून अपने हाथों में ले, अब ऐसी तबाही होगी की जिसे नापा भी नहीं जा सकेगा.” इस हत्या से बवाल होना ही था पर इस बवाल का असर अभी बाकी था. किताब को प्रतिबंधित कर इस बवाल को शांत करने की कोशिश की गयी लेकिन ऐसा आज तक होता कहीं नज़र नहीं आया.
राजपाल ने जिस हमले में अपनी जान गंवाई वो भी कम भयानक नहीं था, इस हमले से पहले भी उन पर 2 बार मारने के प्रयास किये गए थे. पर वो पुलिस की दी गयी सुरक्षा के चलते सफल नहीं हुए, पर इस कोशिश के वक्त राजपाल के पास से पुलिस सुरक्षा हटा दी गयी थी. हमला इतना गहन था कि राजपाल पर 8 बार चाकू से प्रहार किया गया. जिसमें उनके पुरे शारीर को गोद दिया था, 4 बार उनके हाथों पर वार किया गया, 2 वार उनकी रीढ़ के उपरी हिस्से पर किये गए, एक वार उनके सर पर किया गया, और जो अंतिम घाव सिद्ध हुआ उसमें उनके छाती में छेद कर दिया था. आपको जान कर हैरानी होगी और शायद दुःख भी की महाशय राजपाल को मरने वाले शख़्स इलम दीन को मौत की सज़ा तो हुई पर उस हत्यारे को पहले तो शहीद घोषित किया गया और उसके बाद उन्हें ग़ाज़ी के खिताब से भी नवाज़ा गया.
इस पूरे कांड की वजह रही ये किताब – रंगीला रसूल. लेकिन किताब में आखिर ऐसा क्या लिखा था जो राजपाल की हत्या की, देश के विभाजन की, हिन्दू मुस्लिम एकता के हनन की वजह बन गयी? किताब के कुछ अंश –
“*** दूल्हा हुए, माई खुदीजा के पति बन उसकी जानों माल के मालिक और रक्षक बने. बचपन में ही गरीब हो गए थे, बहुत दिनों तक माँ की ममता का सुख न देखा था.”
“*** के मकान में सिलसिलेवार बीवियां थी और एक दुसरे से खूबसूरती में बढ़ चढ़ कर थी. सभी प्रकार से आनंद और आराम था.”
सचमुच औरत की खूबी कुंवारपन में है और *** ने कुंवारी औरत से शादी की. वह आयशा थी, आयशा अबू-बकर की लड़की थी. अबू बकर और *** का अदायल उमर (बचपन का स्नेही) था. उसकी उमर और *** की उमर लगभग एक सी थी. ***अबू बकर से सिर्फ 2 साल बड़ा था. आयशा की उमर उस समय कोई 6-7 साल की थी.*** ने इस कम उमर की लड़की पर जो उमर में इसकी पोती के बराबर थी, अपनी निस्बत क्यों ठहराई?
मस्जिद का आँगन है. बीस साल की जोरू जो बासठ साल के शौहर का सिर अपने घुटनों पर लिए हुए बैठी है.
ये कुछ छोटे छोटे अंश है जो बहुत कुछ साफ़ साफ़ या ऐसा कहें कि दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है. उस पुस्तक को प्रतिबंधित तो किया गया लेकिन इस डिजिटल जगत में संभव नहीं. आज भी अगर किसी को पढने की इच्छा हो तो वो गूगल बाबा की मदद लें, आसानी से इस पुस्तक को पढ़ लें और अपने आप से सही और गलत का चुनाव भी कर लें. दोनों पक्ष आपके सामने हैं, अभिव्यक्ति की आजादी वाला भी और उस आजादी के मुंह पर ताले जड़ने वालों का भी. सवाल ये रह जाता है कि कितनी बार ताले बदले जाते हैं और हर ताले लगने के पीछे हाथ किसका होता है. एक और बात है, जुबानें किस किस की बंद करते रहोगे साहब ?