ये उदास खिड़कियां . . .
इनकी बेबस सिसकियां
बाट जोह रही हैं अभी तक
आएगा कोई लौटकर
देगा फिर दस्तक़ दरवाज़े पर
झूम झूम कर चिनारों के झोंकों से
इस्तक़बाल करेंगी ये बुढाती खिड़कियां।
. . .
इन खिड़कियों के किनारे से गुजरती
सिंधु, चिनाब, झेलम
कितनी ही रूहानी यादों,
दर्दों, अश्कों, मुस्कानों को
बहाकर समंदर में गवां चुकी हैं
मगर ये खिड़कियां
समेटे हुए है अभी तक
दर्द -ए- दास्तां।
. . .
चिनार की वह खिड़की
अधमरे दरवाज़े के ऊपर
रूखी दीवार में टंगी है
अभी तक विरहणी सी
कुछ पुरानी धुंधली, अधजली
चीखती, चिल्लाती, बेबस आँखों की
बेबसियों को समेटे हुए।
चिनार के उदास झोंकों से
कभी थरथराने लगती हैं
तो झरता है बेबस आहों
और डूबती आँखों का उदास संगीत
जो अब भी गुम और नम है
इनकी चरमराहट में।

. . .
घाटी की चमचमाती सड़कों के किनारे
ऊंची इमारतों के बीच भिंचे भिंचे से
उदास खड़े बेजान घरों की
उदास खिड़कियां
उम्र में दादी-नानी हो गईं
मगर अब भी इंतज़ार है
कि लौटेगा बचपन।
डल चुपके से आंसू बहाती है
जब फड़फड़ाती हैं उदास खिड़कियां
. . .
शंकराचार्य के घंट निनाद से कभी
कौन महसूसता है डल के आंसू
शिकारा में बैठे सैलानी!
कहाँ देख पाते हैं
उदास खिड़कियों की
पनीली सिसकियों को।
. . .
शालीमार, निशात, चश्मेशाही
वाकई गुलज़ार है डल किनारे?
सचमुच, बेजान है ये मुगलई बगीचे
इनकी महक कब की ज़मीदोज़ है
महज़ जिस्म का बोझ ढो रही है घाटी
रूह के बिना।
उम्मीद में है खिड़कियां
रूह लौटकर आएगी
नया जन्म लेकर
डल, चिनार, चिनाब, सिंधु ने
आश्वस्त किया है
उदास खिड़कियों को
ये भी पढ़ें :


