आमतौर पर भारत की आम जनता उम्मींद करती है कि चुनाव महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण, बेघरी, भुखमरी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर लड़े जाएँ. चुनावों के वक्त मोटा-मोटी इन मुद्दों पर चर्चा होती भी हैं लेकिन धर्म और जाति के सामने एकाएक सारे मुद्दे दम तोड़ देते हैं. क्या कांग्रेस, क्या बीजेपी, क्या आम आदमी, क्या फलाना, क्या ढिमका! बरसाती मेंढ़को की भांति सिर्फ धर्म और जाति पर ही सबकी टर्र-टर्र सुनाई देती हैं.
फ़िलहाल सारी पार्टियां गुजरात विधानसभा चुनाव को लपक लेने को बौरा रहीं हैं. वही गुजरात जिसके ‘विकास मॉडल’ के रथ पर चढ़कर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए. चूँकि गुजरात मोदी-अमित शाह जोड़ी का गृह राज्य हैं. ऐसे में पूरी उम्मींद थी कि गुजरात में भाजपा को पटकनी देने के लिए कांग्रेस एड़ी-चोटी का दम लगा देगी. कभी गुजरात का नाम सुनकर खट्टी डकारें लेने वाली कांग्रेस को आज गुजराती खाना बहुत स्वाद दे रहा है. ऐसा स्वाद कि जिसमें कांग्रेस ने अपनी रंगरूप -रणनीति सब कुछ उल्टा ली है. हरदम मुसलमानों की बात करने वाली कांग्रेस आज गलती से भी मुसलमान शब्द जबां पर नहीं ला रही. “हिन्दू आतंकवाद” जैसा शब्द गढ़ने वाली कांग्रेस आज “सॉफ्ट हिंदुत्व” का बिरवा बो रही है. सोमनाथ मंदिर, स्वामीनारायण मंदिर, अंबाजी मंदिर, चामुंडा देवी मंदिर, द्वारकाधीश मंदिर, कबीर मंदिर. राहुल 47 वर्षो में जितने मंदिर नहीं घूमे उतने एक गुजरात ने चुनाव घुमवा दिए. वाह रे इलेक्शन तेरी लीला अपरंपार!
इस चुनाव में भी जाति और धर्म, बाकी सारे मुद्दों पर भारी पड़ रहें हैं! कल तक इन्हीं मुद्दों पर भाजपा को आईना दिखाने वाली कांग्रेस आज खुद इसमें तिलिस्म तलाश रही है. नरेंद्र मोदी के दिल्ली चले जाने के बाद जिस तरह राज्य में जातिगत आंदोलनों ने जोर पकड़ा है, राहुल गाँधी इसी में 2019 की आधी जीत पक्की करने के इरादे से मैदान में उतरे हैं और इसके लिए वे हार्दिक पटेल से, अल्पेश ठाकोर, जिग्नेश मेवानी के पिट्ठू बन गए हैं! यहाँ तक की पटेलों को लुभाने के लिए आरक्षण का एक छलावा भी लाया गया है.
बहरहाल, राहुल गाँधी की इन तरक़ीबों में मुझे माधव सिंह सोलंकी परछाईं नज़र आती है.
माधव सिंह सोलंकी चार बार गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. साथ ही देश के विदेश मंत्री जैसे अहम पद पर भी रहे हैं. उनके पास गुजरात विधानसभा चुनाव में आजतक की सबसे ज्यादा सींटे जितने का रिकॉर्ड दर्ज हैं. उन्होंने 1981 में आरक्षण के जरिये एक ऐसी जाबड़ सोशल इंजीनियरिंग की जिसने उनका आधार बढ़ाया. उनके द्वारा तैयार समीकरण को ‘खम’ कहते हैं जो अंग्रेजी के ‘के, एच, ए व एम’ शब्द से मिल कर बना है. अंग्रेजी में क्षत्रिय शब्द का पहला अक्षर के, हरिजन शब्द का एच, आदिवासी का ए और मुसलिम का एम अक्षर शामिल है. इस ‘ख़म’ फैक्टर ने बेशक माधव सिंह सोलंकी को गुजरात की सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा दिया लेकिन उसके बाद जो हुआ उसका तकाज़ा पटेलों और राहुल गाँधी दोनों को ही लेना बेहतर होगा!
कहा जाता है कि राज्य में सत्ता की लालसा के लिए सबसे पहले जातियों के बीच जहर फ़ैलाने का काम माधव सिंह सोलंकी ने ही किया था. चुनाव जीतने के बाद 1985 में तत्कालीन मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी की ओर से क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमानों को आरक्षण दिए गए थे. जिससे सूबे का बड़ा समुदाय(पटेल) बिफर गया और उसके साथ राज्य के दूसरे समुदाय भी साथ हो लिए जिसकी सरकार ने अनदेखी की थी. उस वक्त का विरोध इतना सख्त था कि आज का विरोध मानो कंफुसकी करने जैसा हैं. शंकर पटेल की अगुवाई में जनता ने डेढ़ साल तक सड़कों पर डटे रहने से गुरेज नहीं किया. खून खराब, धमाल और कर्फ्यू तो मानो हर दूसरे दिन की बात हो गई थी. आज कांग्रेस पटेलो के आरक्षण के मसले को ठीक से हैंडल न कर पाने के लिए भाजपा को जिम्मेदार मानती हैं और उसी मुद्दे पर अपनी राजनितिक रोटियां सेंकते सेंकते सत्ता की मलाई खाना चाहती है लेकिन उनके साथ-साथ हार्दिक पटेल भी एक बार 85 के उस कालखंड को याद कर लें जब पटेल समुदाय कांग्रेस पर ही सबसे ज्यादा तमतमाया रहता था. हालात इतने बत्तर थे कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी तक को लोगों से शांति कायम रखने के लिए अहमदाबाद आना पड़ा था. लेकिन पटेलों ने राजीव गाँधी के खुतबे तक को धता बताया और आंदोलन जारी रहे.

एक रिपोर्ट के मुताबिक 1985 के उस विरोध ने करीब डेढ़ साल तक गुजरात को आंदोलनों और दंगो की आग में झुलसाए रखा. मगर कांग्रेस की राज्य सरकार और केंद्रीय आला कमान कुछ न कर सका. करीब 180 से ज्यादा लोगों की जान गई. 6000 लोग बेघर हुए. GSRTC (गुजरात राज्य मार्ग वाहन व्यवहार निगम) की 120 से ज्यादा बसें जला दी गई और करीब 2,000 बसों को तोड़-फोड़ दिया गया. आये दिन कर्फ्यू लगे रहने के कारण राज्य में बेरोजगारी और बर्बादी का आलम कुछ यूँ बढ़ा कि 1500 से ज्यादा दुकानों और कारखानों पर ताले लग गए. स्कूल – कॉलेज सब बंद रहने लगे. ऐसा बहुत कम बार सुनने मिलता हैं लेकिन बैंके भी बंद रहा करती थीं. लोगों के चैक तक क्लियर नहीं हो पा रहे थे. करीब 1,800 करोड़ के चेक बैंकों के पास पेंडिंग मोड़ में पड़े रहे. देखते ही देखते इन दंगों ने राज्य को 2,200 करोड़ की चपत लगा दी. तत्कानिक सरकार के पास न खुद के खर्चे के लिए पैसे थे न कर्मचारियों काे वेतन देने के. बेकाबू हालातों के भंजन के लिए आख़िरकार माधव सिंह सोलंकी को इस्तीफा देना पड़ा.
खैर, आज हार्दिक पटेल पाटीदारों के युवा नेता हैं. वे भाजपा के ऊपर पटेलों के मुद्दे पर अनापशनाप आरोप मढ़ रहें हैं लेकिन वे किसी बुजुर्ग पाटीदार से 85 के भौकाल की भी तस्कीद लें लें! और यदि वे विरोध कर कर के गुजरात के केजरीवाल बनना चाहते हैं तो इसके लिए कुछ भी याद करने की जरुरत नहीं. बस लगे रहिए जी जान से!


